Thursday, January 24, 2013

आत्मिकी- विवेकशील

जो देश ज्ञान की दृष्टि से विश्व में सर्वोच्च ख्याति प्राप्त रहा हो, धर्म और संस्कृति जैसे अनूठे शब्दों का जिसने संसार को बोध कराया हो, जहां के पुरुषों ही नहीं अपितु नारियों ने भी प्रत्येक क्षेत्र में उच्चायाम स्थापित किये हो, जो विश्व में सोने की चिडि़या के नाम से चर्चित रहा हो, और मध्यकाल से जिसने इस सोने की चिडि़या को बाजों से बचाने के लिए 1000 वर्ष तक निरन्तर प्राणों की आहूतियां दी हों। पीड़ा, दासता और दुव्र्यवहार को झेलते हुए भी जिसने कभी समर्पण न किया हो और अंततः विखण्डन की वेदना को सहन करते हुए स्वतंत्रता की देवी को पुर्नस्थापित किया हो, विदेशी व विधर्मी दर्शन की अमानवीय अवधारणाओं को उखाड़ फैंकने के लिए अनगनित बलिदान देने वाला देश जिसने हर प्रकार के दंश झेलते हुए भी सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना की हो; उसे केवल एक भूखण्ड नहीं बल्कि एक जीवंत राष्ट्र के रूप में देखा जाना चाहिए।
    किन्तु सैकड़ों वे जिनके कि हम नाम जानते हैं और हजारों वे जिनके नाम या तो इतिहास को भी नहीं पता हैं या फिर कलवाकरण की प्रक्रिया के चलते मिटा दिये गए हैं; उन सभी वीर, त्यागी, सत्पुरुषों के राष्ट्रनिर्माण के स्वप्नों को सत्ता के मद में अंधी राजनीति और भोगवाद से प्रेरित जनता जब केवल 60-65 वर्षों में भूलने लगती है और जब आम आदमी को रोटी-कपड़ा-मकान, स्वास्थ्य -शिक्षा-सुरक्षा, बिजली-पानी-सड़क जैसे जीवनोपयोगी तत्वों केे लिए भीषण आन्दोलन करने पड़ते हों तथा इस मांग को पूरा कराने के सतत् प्रयासों के चलते जब आतंकवाद,नक्सलवाद, घुसपैठ, जनसंख्या, आरक्षण, जातिवाद जैसे विशेष बिन्दु हवा में उड़ जाते हों या फिर राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग में लाये जाते हों और इस सबके बीच सिंहासन पर विराजमान धृतराष्ट्र कौरवों की समूची सेना को साथ ले देश को निगल जाने पर उतारू दिखाई देते हों, और जहां देश का गला छोड़ने की मांग करने वालों को पीटा और जेलों में डाला जा रहा हो;     उस देश का पीडि़त और संवेदनशील नागरिक यदि कुछ भी लिखेगा या कहेगा तो आवश्यक नहीं कि वह संसदीय और साहित्यक शब्दावली में गुंथा हुआ हो। वह कभी आक्रोश होगा तो कभी कुंठा, कभी सजल वेदना होगी तो कभी आर्तनाद, कभी प्रेरणा होगी तो कभी प्रार्थना, कभी निर्देशन होगा तो कभी निवेदन। इन सभी मानवीय भावों का मिला-जुला स्वरूप है मेरी कृति ‘अभी स्वप्न धूमिल हैं’। जहां प्रदूषित सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक वातावरण में अपेक्षा नहीं अपितु एक क्षीण आशा अवश्य है कि एक दिन राष्ट्र का जागरण होगा और इन वर्तमान असुरों के आतंक से समाज को मुक्ति मिलेगी। भारत की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक स्वतंत्रता को लाने और बचाने वालों का स्वप्न कभी न कभी अवश्य साकार होगा। जिसकी नींव में यदि मुझे भी एक पत्थर बनने का सौभाग्य मिला तो मैं अपना जीवन धन्य समझूंगा।
    मैं कोई साहित्यकार नहीं हूं इसलिए साहित्यक त्रुटियां होना संभव हैं। मेरी कुठाओं को कविताओं के रूप में व्यवस्थित करने वाले महानुभावों तथा इस पर टिप्पणियां देकर इसे मूल्यवान बनाने बरिष्ठ कवि श्री कंुवरपाल शर्मा ‘कंुवर’, आइना जैसी पुस्तक लिखने का सत्साहस संजोने वाले प्रेरणापुंज श्री ब्रजराज सिंह तोमर, एवं शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में नित नूतन आयाम स्थापित करने वालीं मेरी आदरणीय गुरू श्रीमती डा. उषा पाठक (एसो.प्रोफेसर हिन्दी) का मैं हृदय से आभारी हूं जिन्होंने इसे प्रकाशन योग्य बनाया। मेरी जीवन यात्रा में किसी भी प्रकार की भूमिका निभाने वाले बन्धुओं का भी मैं आभारी हूं जिनके नाम ले पाना मेरे लिए संभव नहीं हैं। संकलन में कुछ यदि व्यक्तिगत लगे तो पाठक मुझे क्षमा करेंगे ऐसा मेरा विश्वास है।
    अंत में यही कहूंगा कि यदि मेरी बात भारतवर्ष के एक भी व्यक्ति को निजी स्वार्थ, जातिवाद एवं अन्य संकीर्णताओं से ऊपर उठ राष्ट्र-प्रेम के पथ पर अग्रसर कर सकी तो मैं इस संग्रह को सार्थक समझूंगा।
    वन्दे मातरम्!!
                                                                                                                                           -विवेकशील
                                                                                                                       सिकन्दराराव, हाथरस (उ.प्र.)

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