Thursday, January 24, 2013

अभी स्वप्न धूमिल हैं..मुखपृष्ठ


स्व.पिताजी को सादर समर्पित




पुस्तक समर्पण

परम्पिता परमात्मा को, जिसने हृदय को संवेदनशील
बनाये रखने के लिए पीड़ाओं के वातावरण का निर्माण किया।

उन समस्त विभूतियों को जो आदि से अनादि तक
राष्ट्र-धर्म के पथ पर बलिदान हुईं व होंगी।

उन सभी व्यक्तियों व परिस्थितियों को जिन्होंने
संघर्ष कर जीने की प्रेरणा प्रदान की।

समीक्षात्मक टिप्पणी-ब्रजराज सिंह तोमर, आजाद नगर, हरदोई

कविता आत्मा की वाणी है। आत्मा चूकि परमात्मा का अंश है अतः इसकी वाणी शाश्वत होती है, उसका प्रभाव अमोघ होता है। इसी अमोघ प्रभाव के बल पर कवि अपने शब्दांकुश से काल-गपंद की चाल को नियंत्रित कर सकता है। वाणी की इसी शक्ति के प्रयोग से रत्नावली ने तुलसी की, विद्योत्रमा ने कालिदास की और रंगरेजिन ने आलम की जीवन धारा मोड़ दी थी। इसी शक्ति के बल पर प्रवीन राम के एक दोहे ने उसे अकबर के कामुक-चुंगल से मुक्त करा लिया था गंग के एक छप्पय ने अकबर से गोवध पर प्रतिबंध लगवा दिया था। बिहारी के एक दोहे ने राजा जय सिंह का दिमाग दुरुस्त कर दिया था और भूषण ने शिवाजी और छत्रसाल को अपनी पालकी में कंधा लगाने हेतु बाध्य कर दिया था। काव्य-शक्ति के ऐसे ही और भी अनेक उदाहरण खोजे से मिल सकते हैं।
    कविता की इसी शक्ति से अभिभूत होकर श्री विवेकशील राघव जी ने उसके स्नेहांचल की शरण ग्रहण की। यद्यपि कविता और साहित्य के संस्कार उनमें जन्मजात रहे; किन्तु वे शब्दायित होने के लिए उचित अवसर की तलाश में रहे। इधर युवावस्था की तेजस्विता, ओजस्विता और मनस्विता ने इनके हृदय में एक आग सी उत्पन्न कर दी और-
    अंतर में जब आग जलेगी, कलम रोशनी तब उगलेगी
यह ध्रुव सत्य है। राघवजी के हृदय की आग कुछ कर गुुजरने की कुछ कर दिखाने की उत्कटता के रूप में सामने आई। जैसे काष्ठ मंे ज्वलनशीलता के समस्त तत्व विद्यमान रहते हैं केवल लौ छुआने भर की देर होती है उसी प्रकार विवेकशील के हृदय में स्थित ज्वल्यता को कवितायत करने के लिए कुछ प्रेरणाऐं अपेक्षित थीं। वे प्रेरणाऐं भी उन्हें सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक विडम्बनाओं और प्रशासनिक विद्रूपताओं आदि से मिलने लगीं। निरंतर गिरता हुआ राजनीतिक स्तर, मूल्यों का क्षरण, स्वार्थपरता, पदलोलुपता, धींगामुश्ती, भ्रष्टाचार ने राघवजी के हृदय को मथकर रख दिया। फलतः उनके भाव सहज रूप में कविता का रूप ग्रहण करने लगे और इन्हीं कविताओं का संकलन ‘अभी स्वप्न धूमिल हैं’ के रूप में हम सभी के समक्ष प्रस्तुत है।
    पुस्तक के नाम से ही कवि के हृदय की आग को महसूस किया जा सकता है क्योंकि जिस रूप में कवि समाज और राष्ट्र को व्यवस्थित देखना चाहता है वैसा उसे दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा। भूतकाल में हम विधर्मी और विदेशी शक्तियों से पराभूत और प्रताडि़त होते रहे और जब लंबे संघर्ष के बाद देश स्वतंत्र हुआ तो उसे विभाजन का दंश झेलना पड़ा। कश्मीर समस्या शिरो-शूल बनकर व्यथित कर रही है। आतंकवाद, माओवाद, जातिवाद, महार्घता, नौकरशाही, कालाधन, रिश्वतखोरी आदि कुछ एसी विकट समस्याऐं हैं जिनसे राष्ट्र निरंतर जूझता आ रहा है और इस जूझ का अंत होता दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। यह आक्रोश कवि की रचनाओं में भी प्रतिबिंबित होता दिखाई पड़ रहा है।
    उक्त आक्रोश से उद्वेलित होकर कवि ने भारतदर्शन, जाग उठो अब तो वीरो और युवा जैसी रचनाओं का प्रणयन किया क्योंकि कवि को भली-भांति ज्ञात है कि युवा देश के भविष्य हैं। देश को सही दिशा देने की उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है युवाओं में ओज, तेज, शोर्य, शक्ति, उत्साह, उमंग सभी कुछ बिद्यमान है। अतः वे यदि संगठित होकर प्राण-पण से जुट जाए तो देश का नक्शा बदल सकता है। राष्ट्र की जो छवि आज हमारी कल्पना में है-युवा शक्ति उसे साकार करने की क्षमता रखती है। जाग उठो अब तो वीरो’ वाली कविता में कवि ने युवाशक्ति को इसीलिए ललकारा है।
    हमारा सबका अनुभव है कि विदेशी शासक चले गए किन्तु हमारे आचरण, व्यवहार, परम्पराओं पर वे अपनी संस्कृति की ऐसी छाप छोड़ गए हैं जो मिटने के बजाय दिनों-दिन गहरी होती जा रही हैं। हम सब अंग्रेजी और अंग्रेजियत के शिकार हो रहे हैं। राजनीतिक गुलामी से तो मुक्ति मिली पर हम उनकी सांस्कृतिक गुलामी में पूरी तरह जकड़ गए हैं। छोड़ दो अब तो गुलामी में कवि ने लोगों का ध्यान इसी ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया है। इसी क्रम में हिन्दी भारत मां की बिन्दी भी एक महत्वपूर्ण कविता है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि हम अपनी जननीतुल्य, पूज्य मातृभाषा (हिन्दी) की घोर उपेक्षा कर रहे हैं और अंग्रेजी को सिर माथे पर बिठाए हैं। अंग्रेजी को हम संभ्रान्त होने का मानदंड मान रहे हैं।
    आजकल की राजनीति के कर्ताधर्ता हमारे नेता हैं किन्तु नेताओं का आचरण आज प्रश्नों के घेरे में है। इन्हीं प्रश्नों को समेटकर कवि ने भारतीय नेता कविता रची है। बड़े तीव्र कटाक्ष किए हैं कवि ने इस कविता में। गांधी जी का प्रसिद्ध कथन है रीयल इण्डिया लिव्स इन विलेजेज गांधी जी की यह उक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, राघव जी ने भी गांधी जी की इस उक्ति से सहमति व्यक्त करते हुए एक कविता में गांव और शहर की तुलना करते हुए गांव की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। भले ही वोटबैंक की राजनीति और शहरी सभ्यता ने ग्राम्य-संस्कृति को विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है किन्तु फिर भी गांवों में जीवन की सहजता और सरलता के दर्शन आज भी किये जा सकते हैं। इस प्रकार कवि की इस कृति की समस्त रचनाओं का अवगाहन करने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पंहुचते हैं कि कवि में राष्ट्रवाद, राष्ट्र-भाषा और स्वदेशी भावना के प्रति प्रेम कूट-कूट कर भरा है। इन सभी भावों की सफल अभिव्यक्ति उनके काव्य में झलकती है। अपनी बात को सशक्त और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता से कवि विभूषित है।
    शब्दों पर अच्छी पकड़ और भाषा पर कवि का अच्छा अधिकार है। शब्द-सामथ्र्य की समझ में कवि निष्णात है फिर भी उन्होंने बोधगम्यता सर्वत्र बनाए रखी है। कवि का काव्य क्लिष्टता दोष से सर्वथा रहित है।
    जहां तक अलंकृति का प्रश्न है उस संबंध में पंत जी की दो पंक्तियां याद आती हैं-
        तुम वहन कर सको जन-मन में मेरे विचार
        वाणी तुझको चाहिए और क्या अलंकार।।
    कवि विवेकशीलजी ने इसी आदर्श का अनुसरण किया है वे अलंकारों के फेर में ज्यादा नहीं पड़े, सहज रूप में कोई अलंकार बन पड़ा तो उससे परहेज भी नहीं किया।
    सारांश रूप में यही कहना है कि विवेकशील एक नवोदित साहित्यकार हैं। वे न केवल अपनी कविता के माध्यम से वरन पत्रकारिता के माध्यम से भी मां भारती की सेवा कर रहे हैं। वे राष्ट्रोत्थान की कामना से ओत-प्रोत हैं और राष्ट्रीय गौरव से लबालब है। राष्ट्र को, राष्ट्रभाषा को और साहित्य को उनसे बड़ी आशाऐं हैं और इन आशाओं को पूरा करने हेतु विवेकशील में असीम संभावनाऐं भी विद्यमान हैं। मेरी शुभाकांक्षा है कि विवेकशील की आरती पूरे भारत में गूंजे। उनकी यशस्विता (जिसका प्रयास नहीं किया जा रहा)  का प्रकाश दिग-दिगन्त तक फैले। अंत में उनके काव्य की कतिपय पंक्तियां अवतरित करते हुए अपनी इस समीक्षात्मक टिप्पणी का समापन करता हूँ।
        भलाई रास्ता वो जो शिखर के पार जाता है।
        जमाना भी उसे ना रोक पाता हार जाता है।
        संभलना तू पथिक, चलना अकेले ही यहां होगा,
        प्रभू ही साथ में होगा नहीं संसार जाता है।       
                    इति शुभम्
                        -ब्रजराज सिंह तोमर
                        आजाद नगर, हरदोई
                              लेखक- आइना,

आत्मिकी- विवेकशील

जो देश ज्ञान की दृष्टि से विश्व में सर्वोच्च ख्याति प्राप्त रहा हो, धर्म और संस्कृति जैसे अनूठे शब्दों का जिसने संसार को बोध कराया हो, जहां के पुरुषों ही नहीं अपितु नारियों ने भी प्रत्येक क्षेत्र में उच्चायाम स्थापित किये हो, जो विश्व में सोने की चिडि़या के नाम से चर्चित रहा हो, और मध्यकाल से जिसने इस सोने की चिडि़या को बाजों से बचाने के लिए 1000 वर्ष तक निरन्तर प्राणों की आहूतियां दी हों। पीड़ा, दासता और दुव्र्यवहार को झेलते हुए भी जिसने कभी समर्पण न किया हो और अंततः विखण्डन की वेदना को सहन करते हुए स्वतंत्रता की देवी को पुर्नस्थापित किया हो, विदेशी व विधर्मी दर्शन की अमानवीय अवधारणाओं को उखाड़ फैंकने के लिए अनगनित बलिदान देने वाला देश जिसने हर प्रकार के दंश झेलते हुए भी सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना की हो; उसे केवल एक भूखण्ड नहीं बल्कि एक जीवंत राष्ट्र के रूप में देखा जाना चाहिए।
    किन्तु सैकड़ों वे जिनके कि हम नाम जानते हैं और हजारों वे जिनके नाम या तो इतिहास को भी नहीं पता हैं या फिर कलवाकरण की प्रक्रिया के चलते मिटा दिये गए हैं; उन सभी वीर, त्यागी, सत्पुरुषों के राष्ट्रनिर्माण के स्वप्नों को सत्ता के मद में अंधी राजनीति और भोगवाद से प्रेरित जनता जब केवल 60-65 वर्षों में भूलने लगती है और जब आम आदमी को रोटी-कपड़ा-मकान, स्वास्थ्य -शिक्षा-सुरक्षा, बिजली-पानी-सड़क जैसे जीवनोपयोगी तत्वों केे लिए भीषण आन्दोलन करने पड़ते हों तथा इस मांग को पूरा कराने के सतत् प्रयासों के चलते जब आतंकवाद,नक्सलवाद, घुसपैठ, जनसंख्या, आरक्षण, जातिवाद जैसे विशेष बिन्दु हवा में उड़ जाते हों या फिर राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग में लाये जाते हों और इस सबके बीच सिंहासन पर विराजमान धृतराष्ट्र कौरवों की समूची सेना को साथ ले देश को निगल जाने पर उतारू दिखाई देते हों, और जहां देश का गला छोड़ने की मांग करने वालों को पीटा और जेलों में डाला जा रहा हो;     उस देश का पीडि़त और संवेदनशील नागरिक यदि कुछ भी लिखेगा या कहेगा तो आवश्यक नहीं कि वह संसदीय और साहित्यक शब्दावली में गुंथा हुआ हो। वह कभी आक्रोश होगा तो कभी कुंठा, कभी सजल वेदना होगी तो कभी आर्तनाद, कभी प्रेरणा होगी तो कभी प्रार्थना, कभी निर्देशन होगा तो कभी निवेदन। इन सभी मानवीय भावों का मिला-जुला स्वरूप है मेरी कृति ‘अभी स्वप्न धूमिल हैं’। जहां प्रदूषित सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक वातावरण में अपेक्षा नहीं अपितु एक क्षीण आशा अवश्य है कि एक दिन राष्ट्र का जागरण होगा और इन वर्तमान असुरों के आतंक से समाज को मुक्ति मिलेगी। भारत की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक स्वतंत्रता को लाने और बचाने वालों का स्वप्न कभी न कभी अवश्य साकार होगा। जिसकी नींव में यदि मुझे भी एक पत्थर बनने का सौभाग्य मिला तो मैं अपना जीवन धन्य समझूंगा।
    मैं कोई साहित्यकार नहीं हूं इसलिए साहित्यक त्रुटियां होना संभव हैं। मेरी कुठाओं को कविताओं के रूप में व्यवस्थित करने वाले महानुभावों तथा इस पर टिप्पणियां देकर इसे मूल्यवान बनाने बरिष्ठ कवि श्री कंुवरपाल शर्मा ‘कंुवर’, आइना जैसी पुस्तक लिखने का सत्साहस संजोने वाले प्रेरणापुंज श्री ब्रजराज सिंह तोमर, एवं शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में नित नूतन आयाम स्थापित करने वालीं मेरी आदरणीय गुरू श्रीमती डा. उषा पाठक (एसो.प्रोफेसर हिन्दी) का मैं हृदय से आभारी हूं जिन्होंने इसे प्रकाशन योग्य बनाया। मेरी जीवन यात्रा में किसी भी प्रकार की भूमिका निभाने वाले बन्धुओं का भी मैं आभारी हूं जिनके नाम ले पाना मेरे लिए संभव नहीं हैं। संकलन में कुछ यदि व्यक्तिगत लगे तो पाठक मुझे क्षमा करेंगे ऐसा मेरा विश्वास है।
    अंत में यही कहूंगा कि यदि मेरी बात भारतवर्ष के एक भी व्यक्ति को निजी स्वार्थ, जातिवाद एवं अन्य संकीर्णताओं से ऊपर उठ राष्ट्र-प्रेम के पथ पर अग्रसर कर सकी तो मैं इस संग्रह को सार्थक समझूंगा।
    वन्दे मातरम्!!
                                                                                                                                           -विवेकशील
                                                                                                                       सिकन्दराराव, हाथरस (उ.प्र.)

हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे

हो मन ये निश्छल, विमल हो ये वाणी.
जगे राष्ट्रभक्ति, जगे राष्ट्र प्राणी..
    हृदय ज्ञान जैसे, तू गीता का भर दे,
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे.
कहीं कष्ट देखँू, नहीं चुप रहूँ मैं,
मनुज वेदना को नहीं चुप सहूँ मैं.
    हिलें दुष्ट दिल, शब्द ऐसे प्रखर दे,
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे.
जो अपनों से भारत छला जा रहा है.
प्रबल सत्य सूरज, ढला जा रहा है.
    कहूँ सत्य वह; भावना ऐसी भर दे.
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे.
मेरे देश बन्धू, खड़े हीनता में.
हैं हाथों को बाँधे पड़े दीनता में,
    खड़े हों वे उठ बात में वो असर दे.
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे.
बनूँ मैं न याचक कभी भौतिकी का.
रहूँ एक बाहक, सदा ही गती का.
    बनूँ सत्य का पारखी वह नजर दे.
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे...

मेरी कविता राग नहीं संवाद है

मेरी कविता राग नहीं संवाद है
नहीं प्रशंसा की इस में फरियाद है
दूर प्रलोभन की कारा के फंदों से
मुक्त गगन में उड़ने को आजाद है

जिसको भली लगे वो दिल में रख लेना
जिसको लगे बुरी वो दिल पर मत लेना
शान्त भाव से पढ़ना अन्तर्नाद है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

इसमें नहीं बन्दना कोई ताजों की
इसमें पीड़ा है भूखे मोहताजों की
सच कहने का यह अपना अंदाज है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

कहीं-कहीं पाओगे इसमें क्रोध है
और कहीं पर सदियों का प्रतिशोध है
यह गूंगों की बोली है, आवाज है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

इसमें निर्बल के आंसू की धार है
दुष्ट, कमीनों को इसमें ललकार है
यह बलिदानी भाषा है, अनुवाद है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

यह भूषण, दिनकर, गुप्तों की वाणी है
यह भारत के आरत को कल्याणी है
राष्ट्रप्रेम है और न कोई वाद है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

मैं गाता हूँ सोते हुए जवानों को
गाऊँगा वेवश मजदूर किसानों को
अन्धी आजादी में जो बरबाद है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

काव्यगत विवशता

ना कोई लेखक, न ज्ञानी,
ना समझिए कोई कवि हूं।
कर्म-पथ पर वेदना संग
बढ़ रही इक गौण छवि हूं।

शब्द कुछ सौन्दर्य पर
मैं भी लिखूं मन चाहता ये।
प्रकृति की अठखेलियों पर
कुछ कहूं मन चाहता ये।

किन्तु जब लेखन के क्षण में
लेखनी है हाथ आती।
दृश्य सब शोषण के दिखते
ना तरंग मन में समाती।

जब हिरणि के नयन पर मैं
अपनी दृष्टि फंैकता हूं।
बस तभी शोषित हुई
अबला के आंसू देखता हूं।

सोचता जब रसभरे
अधरों पै मैं मुस्कान नर्तन।
बस तभी होता है मुझको
सूखते होठों का दर्शन।

मन्द, शीतल सी बयारें
शब्द में मुझसे न बंधतीं।
देखकर भारत की पीड़ा
लपट ही मन में हैं उठतीं।

आम की डाली पै मुझको
कूक कोयल की न भाती।
रोज निर्दोषों की हत्या से
तड़प जाती है छाती।

बढ़ रही जब अंधता तब
ज्योति पर कैसे लिखूंगा।
मैं स्वयं से ही करूं छल
तब स्वयं को क्या दिखूंगा।

घोर व्यापक गहन तम में
भूमिका होती जो रवि की।
उस तरह आलोक देती
भूमिका होती है कवि की।

गद्य हो या पद्य हो बस
बात मैं अपनी कहूंगा।
सत्य की अभिव्यक्ति होगी
अंत तक ना चुप रहूंगा।

भारत दर्शन

आर्य देश भारत का जग में नाम रहा है ऊँचा
लेकिन केवल तब तक जब तक काम रहा है ऊँचा
ज्ञान पताका भारत की सारे जग में छाती थी
सारे जग की तरूणाई हम से शिक्षा पाती थी

भरद्वाज, नागार्जुन जैसे विज्ञानी की धरती
ज्ञान और विज्ञान सिखाने को आकर्षित करती
रामप्रभु का मर्यादा पालन अदभुत् चरित्र था
और कृष्ण के सत्स्वरूप में भी एक दिव्य चित्र था।

जाति-पांति का भेद नही था आर्य-आर्य थे भाई
आर्य जगत में ऊँच नीच की नहीं पड़ी थी खाई
कर्मों से अधिकार प्राप्त थे, कोई द्वेष नहीं था।
भरे पेट थे सबके भूखा कोई शेष नहीं था।

प्रचुर रूप सम्पत्ति भला संग्रह की बात कहां थी।
त्यागमयी जीवन दर्शन में कोई घात कहाँ थी।
सभी सुखी हो; सभी निरोगी ये हम ही कहते थे।
जप-तप-नियम और संयम से ही जीवन जीते थे।

दया-दान से भक्ति-ज्ञान से बढ़ी धीरता हममें
परहित में बलिदान भाव ने गढ़ी वीरता हममें
निःसंदेह उड़ायें कोई अब उपहास हमारा
किन्तु सैकड़ों सदी पुराना है इतिहास हमारा

कही त्याग है, कहीं शौर्य है, पीड़ा कही घनेरी,
कभी रुदन का करुणानाद है, कभी बजी रण भेरी
किन्तु शान्ति के अनुचित दर्शन की शैतानी माया
वैभव बढ़ता गया किन्तु मन में आलस था छाया


जब बढ़ता है वैभव आलस खुद ही आ जाता है
दमक रहे आनन पर तम का बादल छा जाता है
ईश्वर की भी कृपा सदा उस ‘जाती’ पर रहती है
दुष्टजनों पर जिन की हरदम भृकुटि तनी रहती है

धन वैभव और सत्य तभी तक जीवित रह सकते हैं
जब तक उससे पोषित जन पीड़ा भी सह सकते हैं
और नहीं तो शैतानी दर्शन आगे बढ़ता है
जो चरणों का पात्र पकड़ गर्दन सिर पर चढ़ता है

तभी मही के अन्य भाग पर जो भूखे थे बर्बर
ज्ञान और दर्शन के जिनके कोष पड़े थे जर्जर
वे आये सम्पत्ति लूटने भारत में दल लेकर
योगमयी भूमि को रोंदा पशुओं सा बल लेकर

मंगोलों, अरबों ने भारत शक हूणों ने लूटा
लेकिन फिर भी हिन्दु जाति का दर्प नहीं था टूटा
वैभव से जन्मी विकृति का लाभ दुष्ट ने पाया
पंख नौंचने स्वर्णपक्षि के बार-बार वह आया

किन्तु चुकानी पड़ी उसे भी कीमत इसकी भारी
दृश्य दिखाये हमने भी कुछ उनको हाहाकारी
किन्तु कहें क्या हाय फूट ने अपना असर दिखाया
धीरे-धीरे गीदड़ ने सिंह के घर पैर जमाया।

जो थे समझौतेवादी, वे तो झुकते जाते थे
थे स्वाभिमान से भरे हुए मरकर चुकते जाते थे
कुछ छीना भारत दुष्टों ने हिंसा मक्कारी से
कुछ हमने भी दे डाला अपनी ही गद्दारी से

शासक उन्हें बनाया जिनको अन्न न था खाने को
लाखों देवालय तुड़वाये इक तमगा पाने को
धन-दौलत को लूटने वाले बने देश के राजा
धर्म-संस्कृति पा सकती थी फिर कैसे दम ताजा

फिर क्या कहें, बतायें कैसे, क्या-क्या हमने झेला
दुष्टों ने सत्ता पाकर के खेल दानवी खेला
माँ-बहिनों के स्तन काटे ग्रन्थागार जलाये
बैलों से चलते कोल्हू हिन्दू-जन से चलवाये

चैहानों के लाल कोट को लाल किला कर डाला
राजमहल का नाम बदल कर ताजमहल रख डाला
विक्रम का जो बेध खंभ ज्योतिष गणना का बिन्दू
नाम कुतुबुमीनार उसी का नहीं जानता हिन्दू

इसी काल में हिन्दू होने का हम ‘कर’ देते थे
या चोटी देते थे या फिर पूरा सर देते थे
और हमारी बहिन-बेटियाँ हरना पाप नहीं था
इसीलिए जौहर में जलना भी अभिशाप नहीं था

इसी काल भारत भूमि ने लाखों वीर गवांये
शासक तो वे रहे किन्तु वह जीत हमें ना पायें
बप्पा रावल, पृथ्वीराज या हो राणा बलिदानी
वीर शिवा के छद्म युद्ध की अद्भुत अजब कहानी

इस्लामिक बर्बरता हमसे दस सदियों तक जूझी
अब दोनों को मजा चखा दे, अंग्रेजों को सूझी
व्यापारी का भेष बनाकर के भारत मंे आये
मक्कारी से मक्कारों को चोट वही दे पाये

शनैः शनैः व्यापार बढ़ाया फिर शासन हथियाया
कान पकड़कर राजभवन से गुण्डों को धकियाया
जो करते थे दमन, दमन उनने भी जमकर झेला
अंग्रेजी डंडा जमकर उनकी काया से खेला


मालिक नया मिला भारत को और चली फिर गाड़ी
दीन-हीन हमने देखा खिंचते माता की साड़ी
मन में भी विश्वास क्षीण या हाथ हो गये भारी;
पीठ झुका कर फिर चल दौड़े लेकर नई सवारी

और चले पच्चीस दशक तक गहन क्षोभ में जीकर
अपमानों-अत्याचारों का गरल कसैला पीकर
किन्तु नही थे सभी जिन्होंने था इसको स्वीकारा
दुष्टों के दानवी कृत्य से हर कोई ना हारा

जो मन से स्वच्छन्द उसे कोई कैसे बाँधेगा
राष्ट्र कार्य संकल्प कड़ा हो कोई क्या करे लेगा
फिर भारत भू के आंगन में जागी नई जवानी
आजादी के दीवानों ने लिख दी नई कहानी

मंगलपाण्डे ने विद्रोही ध्वजा हाथ में लेली
जोश जगाकर निज गौरव का फांसी तक थी झेली
और चला फिर क्रम कुछ ऐसा एक-एक से आगे
अंग्रेजी मोटी रस्सी के टूट रहे थे धागे

दमन किया स्वतंात्र्य यज्ञ का बहुत चलाकर गोली
मरने वालों की फिर भी बढ़ती जाती थीं टोली
मातृभूमि की लाज बचाने को नारी भी आई
इक छोटी सी टोली ले भिड़ बैठी लक्ष्मीबाई

सत्तावन से सैंतालिस तक धूम मचाई भारी
मातृभूमि की रक्षा को नित प्रकट हुए अवतारी
इक सुभाष जिसने शक्ति को शक्ति से ही तोड़ा
जर्मन, इटली, जापानी सत्ता से नाता जोड़ा

जो समझे थे वीर स्वयं को उनको धूल चटा दी
फूले नहीं समाते थे उनको औकात बता दी
वो शेखर आजाद नहीं करते थे कभी समर्पण
गोली का उत्तर गोली से नहीं सत्य का अर्पण

भगत सिंह, अशफाकउल्ला की अद्भुत थी कुर्बानी
अनगिन वीरों ने लिख डाली मिलकर नई कहानी
विश्व युद्ध में अरु भारत में दोनों ओर लडें थे
रक्त पिला धरती को आजादी की ओर बढ़े थे

इसी समय को ताक रहा था मजहब वाला विषधर
सत्ता को हथिया लेने के ढूँढ़ रहा था अवसर
अवसर जाते देख हाथ गोरों से तुरत मिलाया
फिर भारत को खण्डित करने का अभियान चलाया

राजनीति के प्रेमी को केवल सत्ता थी प्यारी
इसीलिए पापी की शायद मांग गई स्वीकारी
और अन्ततः हिन्दू जाति की फिर से किस्मत फूटी
जिसके हेतू रक्त बहाया वह भारत मँा टूटी

टूट पड़े दानव, मानव पर जम कर रक्त बहाया
भारत माँ के वक्षस्थल पर पाकिस्तान बनाया
शान्ति दूत गांधी जी का भी टूट गया था सपना
उसने खूँ की होली खेली, जो था उनका अपना

धन-दौलत सम्मान लुटाकर हिन्दु वहाँ से भागे
लाखों जीवन लुटे, नहीं भारत के नेता जागे
एक तरफ से मार रही थी भारत को गद्दारी
और दूसरी ओर खड़ी थी अपनी रंगी सियारी

सत्य-अहिंसा के अति की थी जपी जा रही माला
और पाक को इसीलिए पचपन करोड़ दे डाला
खूब पिलाओ दूध साँप को जहर बना करता है
और दुष्ट पालक पर ही बेबात तना करता है


पीकर जहर विभाजन का हम बैठ गये चुप होकर
राजनीति में शोक न था, भारत का मस्तक खोकर
पाक समर्थक को भी पापी राजनीति ने रोका
राष्ट्रवाद के दिल में गद्दारी का नश्तर भौंका

हिन्दु जाति ने सोचा फिर से भारत नया गढ़ेगें
मानवता की ले मशाल दुनिया की ओर बढ़ेंगे
दयानन्द का स्वप्न, विवेकानन्द पुनः जागेंगे
धर्म ध्वजा होगी प्रचण्ड पापी डरकर भागेंगे

भारत एक बनेगा, फिर से दुनिया में चमकेंगे
नहीं भिखारी होंगे सब को कुछ ना कुछ तो देंगे
आजादी का लाभ देश में अंत तलक जायेगा
सदियों से जो दुखी रहा वह भी अब सुख पायेगा

अपना तंत्र और शासन सब कुछ ही अपना होगा।
बनें नींव के पत्थर उनका पूरा सपना होगा।
किन्तु नहीं यह सत्य हुआ लाखों घर में कूमिल हैं
आजादी लाने वालों के ‘अभी स्वप्न धूमिल हैं’

भारत ‘एक’ बनाने को हम धर्महीन बन बैठै
सैकूलर सिंहासन कह पाखण्डी जन, तन बैठे
सत्ता सुख में लीन रहे सब ही बारी-बारी से
लूटा और लुटाया भारत पूरी तैयारी से

कारागार जिन्हें होना था खादी में छुप बैठे।
सत्य अहिंसा के पालक अपने घर में चुप बैठे
अब-तक भारत में आतंकी हिंसा नही रूकी है
मध्यकाल से जिसको देखा, अब भी नहीं चुकी है

सीमा के अन्दर बाहर षड़यन्त्र हो रहे भारी
भारत को टुकड़े-टुकड़े करने की है तैयारी
कभी पाक के गुण्डे हम पर रौब जमा जाते हैं
कभी चीन के हाथ हमारी ध्वजा हिला जाते हैं

घर में भी हम सुखी नहीं बाहर ऐसी तैसी है
मानवता के दर्शन की देखो हालत कैसी है
छः दशकों के बाद देश ने सोचो क्या पाया है
कंकरीट के जंगल हैं या व्यसनों की माया है

भूख करोड़ो ने पाई है और मिली बेकारी
उदर पूर्ति के हेतु बढ़ी तन सौदे की दुश्वारी
भोगवाद का दर्शन कैसा अट्टाहस करता है
दया-त्याग का भारत देखो शनैः शनैः मरता है

नाम धर्म का लेे आतंकी हिंसा होती जातीं
निरपराध निर्दोषों की नित जानें खोती जातीं
हम अमरीकी दादा से फरियाद किया करते हैं
या फिर हाथ जोड़ ईश्वर को याद किया करते हैं

क्योंकि हमारा सिंहासन ही स्वाभिमान खो बैठा
लगता जैसे इन्द्र हमारा नृत्यमग्न हो लेटा
शासन में जो उसे चाहिए इक सोने की लंका
फिर क्या पड़ी किसी को ठोंके राष्ट्र भक्ति का डंका

हो सकता है राष्ट्र भक्ति में प्राण गंवाने होंगे
कुछ करने के लिए लोह के चने चबाने होंगे
इसीलिए निरपेक्ष धर्म से राष्ट्र लुटाते रहते
तरह-तरह की चालों को भी राष्ट्र-भक्ति हैं कहते

राजनीति सेवा ना कोई सिर्फ एक धन्धा है
जातिवाद के जहर सना मतदाता भी अन्धा है
तथाकथित आजादी में काले अंग्रेज बढ़े हैं
आजादी के लिए लडे़ जो अब भी वहीं खड़े हैं


कहीं खुली तो कहीं-कहीं, गुप-चुप सिसकी जारी है
दुनिया भर से लड़ी कौम अपनों से ही हारी है
कहीं भूख के कारण कैसा नक्सलवाद खड़ा है
कहीं अन्न का लालच देकर माओवाद बढ़ा है

कहीं बीस से तीस रुपैया जिस्मों की कीमत है
भाग्यवाद के भारत में यह भी केवल किस्मत है
और कहीं पर माँ के हाथों ही बच्चा बिकता है
कहीं बोध से मुक्त बाल का शोषण तक दिखता है।

आज देश का दर्शन भी अश्लील बना डाला है
केवल भोग विलासों वाली झील बना डाला है
यह सुभाष का नहीं और ना गांधी का भारत है
यह गुण्डों के हाथों है गुण्डों से ही आरत है

चार सौ लाख करोड़ देश का गुण्डे लूट चुके हैं
बीस हजार किसान दुःखी हो तन से छूट चुके हैं
रुपये बीस कमाते प्रतिदिन है करोड़ चैरासी
निर्धन की भारत माता तो पहले जैसी दासी

सत्तर लाख वर्ष में भूखे रह कर मर जाते हैं
और अगर जीवित रहते हैं तो जूठन खाते हैं
आज देश की आधी आबादी ही निर-अक्षर है
और देश में नेता जी का चैका है सिक्सर है

आज देश मंे बिना पढ़े हाथों को काम नहीं है
और काम भी है तो उसका पूरा दाम नही है
एक ओर हो त्रस्त अभावों से भारत मरता है
सेवा का ले नाम देश की कोई स्विस भरता है

कोई देश लूटकर केवल इटली को भरता है
कोई रोटी खा गरीब की नाटक सा करता है
कोई मन्दिर-मस्जिद के झंझट में उलझाता है
खड़ा विवादांे को करता है कुछ ना सुलझाता है

ले दलितों का नाम शेरनी कोई बन जाती है
तोड़-फोड़ के सौदे कर जमकर दौलत खाती है
आजमगढ़ जा आतंकों की बेल बढ़ाता कोई
ओसामा जी कहकर श्रद्धासुमन चढ़ाता कोई

सार रूप में समझो केवल भ्रष्टाचार बढ़ा है
केवल नैतिकता के शब्दों का व्यापार बढ़ा है
आज देश-संस्कृति से सत्ताओं को प्यार नहीं है
और देश का शासक भी सच्चा सरदार नहीं है

ऐसे क्रूर काल में कोई महामनुज आया है
जनता का है साथ और जिस पर ईश्वर छाया है
है सच की तलवार हाथ में सब पर ही है भारी
‘बाबा रामदेव’ कहते हैं लगता है अवतारी

याोग सिद्ध है, युग नायक है लगता जग त्राता है
जिसका कोई नहीं जगत में वो उसका भ्राता है
बांध लंगोटी कूद पड़ा है महासमर लड़ने को
क्रान्तिकारियों के भारत का स्वप्न अमर करने को।

और साथ में लगे हुए मरहाठी वीर हजारे
मार रहे हैं सत्ता को वे थप्पड़ बड़े करारे
गुण्डों से यह देश बचे वे मिलकर जूझ रहे हैं
और देश का जमा-बकाया दोनों पूंछ रहे है

अरे साथियो युग बदलेगा साथ जरा तुम आओ
जातिवाद से राष्ट्र बड़ा है, समझो और समझाओ
रोटी-कपड़ा अरु मकान सब जन ही पा जायेंगे
जीवन जीने की कतार में सब ही आ जायेंगे

अन्न-प्रदाता जो किसान है, भूखा नहीं मरेगा
शिक्षा और स्वास्थ्य पायेगा, उन्नति देश करेगा
सबको ही कुछ काम मिलेगा सबकी भूख मिटेगी
उजड़ी जाती आज जिन्दगी सुख से अरे कटेगी

सीमा-पार और अन्दर हम डर से नहीं रहेंगे
शक्ति हाथ में होगी सबसे सच्ची बात कहेंगे
मानवता को धर्म मान हमको आगे बढ़ना है
मानवता के सभी विरोधों से डटकर लड़ना है

अरे बन्धुओ! देश बचाने को आगे आ जाओ
बहुत हो चुकी मक्कारी मक्कारों को बतलाओ
स्विस का धन अपना धन है उसको वापस लाना है
और पकड़ कर दोषी को काराग्रह ले जाना है

अफजल और कसाबों को फांसी पर लटकाना है
पूआ-पूड़ी नहीं राष्ट्र है उनको बतलाना है
फिर भी ना मानें तो सीमा में घुस धमकाना है
मार-मार कर इन दुष्टों को भारत समझाना है

चीन-पाक को समझाना है छोड़ो जी मक्कारी
अपने हाथ जला देती है कभी-कभी हुशियारी
अगर नहीं मानोगे तो हम जड़े हिला डालेंगे
हम भी तो परमाणु-शक्ति, हम तुम्हें जला डालेंगे

लेकिन यह तब ही होगा जब गद्दार देश में ना हों
अवसरवादी दुष्टों की सरकार देश में ना हों
अपने भारत का खोया गौरव वापस लाना है
स्वाभिमान से ही जीना है या फिर मर जाना है

जाग उठो अब तो वीरो, भारत मां तुम्हें पुकारती

जाग उठो अब तो वीरो, भारत मां तुम्हें पुकारती।
उठो क्षत्र-रक्षक की जननी, लिए थाल में आरती।
करो तिलक पुत्रों का अपने
संकट है निज आन पर।
भरो वीरता उनमें इतनी
मिट जायें वे शान पर।
चढ़ जायें बलिवेदी पर
भारत हित रख कर ध्यान में।   
शिरोच्छेद से पूर्व न जायें
कभी कटारें म्यान में।
भरो जोश  ऐसा, जैसा भरता अर्जुन का सारथी।
जाग उठो अब तो वीरो.........................
जग को दुष्ट बिहीन बना दो
तलवारों की धार से।
रक्तिम नदी बहे धरती पर
बर्छी और कटार से।
कोलाहल मच जाये जग में
महादेव हुंकार से।
पट जाये सारी ही पृथ्वी
वीरों की पुकार से।
हो जायें हम एक सभी, हो नाम सभी का भारती।
जाग उठो अब तो वीरो.........................
खाते हैं वे भारत मां का
गीत पाक के गाते हैं।
उसकी शह पर ही ये दानव
उग्रवाद फैलाते हैं।
हम नहीं भूले सन् सैंतालिस
भारत मां को तोड़ दिया।
हर हिन्दुस्थानी मन का
विश्वास घड़ा ये फोड़ दिया।
लेकिन दुष्टो यह याद रखो, तब की कुछ नीति उदार थी।
जाग उठो अब तो वीरो.................................
एक नये भारत का सपना
भारतीय के मन में हो।
नहीं वक्त ज्यादा लगना
तब हिन्दुस्थान अमन में हो।
अरबों, मुगलों, अग्रेंजों ने
भारत मां को लूटा है।
कई बार हिन्दू का रक्षक
सोमनाथ भी टूटा है।
बदला लो हर एक घाव का मातृभूमि चिंघारती।
जाग उठो अब तो वीरो.......................
बचे न डायन कहने वाला
भारत मां को देश में।
खुलेआम ना घूमे कोई
आतंकी के वेश में।
आतंकी टोली का मित्रो
कहीं न नाम-निशान हो।
द्रोही ध्वज ना दिखें कहीं भी
भगवा ध्वज की शान हो।
घण्टे और घडि़याल बजें हो हर मन्दिर में आरती।
जाग उठो अब तो वीरो भारत माँ तुम्हें पुकारती.

सोया हुआ युवा है, संकट में राष्ट्र भारी

कहने को तो विकास की गंगा बहा रहे हैं।
हम हैं कि रोटियों को गिन-गिन के खा रहे हैं।
मूढ़ों के हाथ शासन कैसी बिडम्वना ये।
ये राष्ट्र की मलाई मिलकर के खा रहे हैं।
सोया हुआ युवा है, संकट में राष्ट्र भारी।
आतंक है चरम पर, निरपेक्षता है न्यारी।
लाखों गऊ की हत्या, हर एक मांसाहारी।
कहने ही भर को माता, ना जान माँ की प्यारी,
पाने को वोट केवल दुम को हिला रहे हैं
कहने को तो विकास...................।
कश्मीर है हमारा क्यों तुम लुटा रहे हो।
क्यों दुश्मनों को दुष्टो मक्खन लगा रहे हो।
फिर भी नहीं तुम्हारा वो पाक अत्याचारी।
वो मान ना सकेगा इक बात भी तुम्हारी।
खुद की हैं टाँगे टूटी, शासन चला रहे हैं।
कहने को तो विकास......................।
इनको न आती लज्जा, जिन्ना को देव कहकर।
पंहुचाया था फलक पर जनता ने कष्ट सहकर।
ये राम जन्मस्थल को बाबरी हैं कहते।
विध्वंस पर ये उसके दुःख व्यक्त करते रहते।
आतंकियों के घर पर दावत उड़ा रहे हैं।
कहने को तो विकास.....................।

ऐ हिन्दू यह याद रखो सम्मान तुम्हारा जायेगा

ऐ हिन्दू यह याद रखो सम्मान तुम्हारा जायेगा।
गौरवशाली यह अतीत बलिवेदी पर चढ़ जायेगा।
जन्मजात गद्दारों से तू बात प्रेम की करता है।
इसीलिए बस पल-प्रति-पल ही राष्ट्र-घात को सहता है।
काश्मीर में हत्याएँ नित जगह-जगह पर दंगे हैं।
देश द्रोहियों के कुहनी तक, हाथ खून में रंगे हैं।
एक दिन वो आयेगा जब कुछ नहीं बच पायेगा।
गौरवशाली यह अतीत...........................।।1।।

अपमानित होतीं द्रोपदियाँ, दुर्योधन की घातों में।
यह सब कुछ होता हम देखें दिन में भी औ’ रातों में।।
भीड़ लगी है दुशासनों की, कृष्णों के नहि दर्शन हैं।
केवल बचीं याचनाएं ही या फिर दीखें क्रन्दन हैं।।
होता रहा अगर ऐसा ही, तो सब कुछ मिट जायेगा।
गौरवशाली यह अतीत..........................।।2।।

रौंद रहे हैं वे हमको नित लेकिन हम चुप-चाप रहंे।
मान और सम्मान हमारा कुचल रहे हम तदपि सहें।।
मजहब की तलवारों से वे कर विध्वंस रहे भारी।
फिर भी रक्षा की आशा है, आये कोई अवतारी।।
पर कलियुग में तुम्हें बचाने और न कोई आयेगा।
गौरवशाली यह अतीत ............................।।3।।

मुम्बई घटना पर आक्रोश-दस-दस गुण्डे घर में घुस कर मार रहे हैं

कभी-कभी दिल सोच-सोच बैठा जाता है
घोर निराशा के क्षण में भारत माता है
हम स्वाधीन शक्ति होकर भी हार रहे हैं
दस-दस गुण्डे घर में घुस कर मार रहे हैं

और हमारा रक्त, रक्त है या है पानी
अय्याशी को शेष, देश को मरी जवानी
सभी बनेंगे लिपिक, चिकित्सक या अभियन्ता
कौन मूढ़ जो बने राष्ट्र का भाग्य नियन्ता
सजधज सड़कों पर फिल्मी गाने गायेंगे
क्या पागल जो सीमा पर लड़ने जायेंगे
और देश के अन्दर भी कोई मारेगा
गांधीगीरी के आगे वो ही हारेगा

भगवा धारण किये धर्म के जो चिन्तक हैं
लगता सबसे बड़े आज वे ही वंचक हैं
राम-कृष्ण की बात किन्तु हैं शस्त्रविरोधी
ज्ञानी बनते फिरें किन्तु बुद्धि है खो दी
पिटने वाले को मानवता समझाते हैं
भला बताते नहीं माल जिसका खाते हैं
आत्ममुग्ध हो नशा चढ़ाये रहते मन को
या गांजे की चिलम चढ़ाये रहते तन को
आत्मज्ञान की बात मृत्यु का भय होता है
इन्हीं दोगलों से समाज का क्षय होता है

लोकदिशा जो देते थे गढ़कर कविताऐं
जो वाणी बल पर मोड़ा करते सरिताऐं
वे अधिकांश लगे मनमोहक श्रृंगारों में
मोल बताते अपना खुलकर बाजारों में
लिखते फूहड़ गीत और साहित्य बताते
आत्मप्रशंसा करते मन ही मन मुस्काते
वे ही कालीदास और ना कोई दूजा
डालो पुष्पाहार करो सब इनकी पूजा
सोचो! कवि यदि भोगमयी साहित्य रचेगा
तो फिर कैसे त्यागमयी यह देश बचेगा

खुद को लोकतंत्र का जो स्तंभ बताते
देश जगाने वाला कहकर दंभ जताते
उनकी कलम दलाली के बल पर चलती है
सत्य दबा देती है जनता को छलती है

शिक्षा वह आधार जहां बनता चरित्र है
जिसका कोई नहीं ज्ञान उसका भी मित्र है
लेकिन तब क्या जब शिक्षक में त्याग नहीं हो
वेतन की ही चाह भाव की आग नहीं हो
कौन बनाये राम, बनाये कौन शिवाजी
शिक्षक अक्षर ज्ञान बताने तक ना राजी

सत्ता तो लगती है अब गुण्डों की दासी
निर्बल-निर्धन-कमजोरों के खूं की प्यासी
माननीय वे जो; तिहाड़ के अधिकारी हैं
वे इलाज क्या होंगे खुद ही बीमारी हैं
आज पुनः धृतराष्ट्र सिंहासन पर बैठे हैं
लूटपाट कर रहे सभी उनके बेटे हैं

अरे साथियो आज देश हित जुटना होगा
वरना निश्चित ही पिटना और लुटना होगा
हर जगहा मुम्बई जैसे गुण्डे टूटेंगे
पाक इशारे पर वे प्राणों को लूटेंगे
और नपुसक राजनीति कुछ कर न सकेगी
टूट पड़ी विपदा को शायद हर न सकेगी

मैं भी नहीं चाहता कुछ भी कड़वा बोलूं
अच्छा सुन्दर कहूं भला क्यों बिष सा घोलूं
पर कहता हूं ऐसों को सम्मान न देना
केवल शब्दों तक से कोई मान न देना
मेरा देश बचादें मैं गुणगान करूंगा
एक इशारे पर जीवन तक दान करूंगा