Wednesday, January 16, 2013

कुछ विदेशी शत्रु भारत के पतन को बढ़ रहे हैं।

हर तरफ घनघोर तम है, ना किरन है कोई रवि की।

रिक्त अंतस प्रीत से है तो क्या शोभा मनुज छवि की।


दानवी संस्कृति के आगे मानवी गुण खो रहे हैं।

आवरण पशुता का पहने लोग विकसित हो रहे हैं।


नग्नता की संस्कृति से मूढ़ता ही बढ़ रही हैै।

ज्ञान से अज्ञान के पथ पर ये गंगा बह रही है।


कुछ विदेशी शत्रु भारत के पतन को बढ़ रहे हैं।

और कुछ इस देश में ही साजिशांे को गढ़ रहे हैं।


और हम तो सो रहे हैं नींद के खाकर रसायन।

कल्पनाओं से घिरे हैं पढ़ रहे हैं वात्स्यायन।


राष्ट्र के प्रति प्रेम का सब भाव गिरता जा रहा है।

इसलिए ही शत्रु का साहस भी बढ़ता जा रहा है।


चीन लूटे, पाक लूटे किन्तु हम कुछ ना कहेंगे।

शान्ति के हम हैं समर्थक बस युंही सब कुछ सहेंगे।


गत हजारों बर्ष से हम हो गये लुटने के आदी।

या कहो कायर हमें तुम, या कहो तुम गांधिवादी।


बस परस्पर भिड़ते रहना ही हमारी प्रकृति है।

या इसे सद्गुण कहो तुम या कहो यह विकृति है।


प्रीत आपस में करें हम रीत यह अपनी नहीं है।

आवरण को त्याग कर यह जिन्दगी कटनी नहीं है।


और सारा विश्व मिलकर भी हमारा क्या करेगा?

राम का है देश यह क्या राम से कोई लड़ेगा?


जब कभी जंजाल में पड़ रामजी आ ना सकेंगे।

और तब क्या कृष्ण ऐसे जो हमारी ना सुनेंगे।


छोड़ दो यह नीतियां वरना तुम्हें रोना पड़ेगा।

बहिन, बेटी, धन औ दौलत सब तुम्हें खोना पड़ेगा।

राम भी तुम, कृष्ण भी तुम भाव यह मन में जगा लो।

द्रोहियों के हाथ से इस देश को अब तो बचालो।


है गुलामी रक्त में जो तुम उसे अब शुद्ध कर लो।

चेतना के शिखर छूकर स्वयं को तुम बुद्ध कर लो।


नेह की डोरी में बंधकर राष्ट्र का कुछ ध्यान कर लो।

मिट गये जो राष्ट्र हित में उनका कुछ सम्मान कर लो।


छोड़ दो शठ आचरण को, त्याग दो पर आवरण को।

जान अपना ‘‘धर्म’’ कर लो, शुद्ध तुम अन्तःकरण को।


कृष्ण की गीता है कहती, राम रामायण में कहते।

धर्म से जो च्युत हुये हैं वे नहीं इस जग में रहते।

जब से जन्मा तब से मैंने दुनिया के लाखों रंग देखे

मैं हूं कौन? कहां से आया?
मुझको कोई भान नहीं क्यों?
आया हूं किसलिए और क्यों?
मुझको कोई ज्ञान नहीं क्यों?

जब से जन्मा तब से मैंने
दुनिया के लाखों रंग देखे।
लाखों और करोड़ों वालों
के भी जीने के ढंग देखे।

शैशव से ही बन्दूकों के
सुने धमाके, दिल दहलाये।
सहमी सी आखों से देखे,
मैंने आतंकों के साये।

मैंने अपना होेश संभाला,
है गोली की आवाजों से।
रोज सुरक्षा होते देखी
है हिंसा की आगाजों से।

एक-एक से बढ़कर योद्धा,
साहस का कुछ तौल नहीं था।
स्वाभिमान के बड़े समर में,
सम्पत्ति का मोल नहीं था।

घटनाओं के वर्णन क्या दूं,
बहुत जिया हूं डेढ़ दशक में।
अपना तो सारा जीवन ही,
गुजरा पीड़ा और कसक में।

बड़े भले रूपों में मुझको
तरह-तरह के चोर मिले हैं।
कुछ तो अपनों में से निकले,
बाकी के कुछ और मिले हैं।

तरह-तरह से लुटते आये,
नये सवेरे की आशा में।
फिर भी नहीं जान पाये हम,
छल प्रपंच उनकी भाषा में।

कोई धन के कोई मन केे,
कई तरह के शोषक देखे।
भ्रष्टाचारी पापी देख,
दुव्र्यसनों के पोषक देखे।

श्वेत वस्त्र में छिपे हुये,
कुछ गुण्डे और मवाली देखे।
छेड़छाड़ और लूटपाट में,
‘वर्ग बिशेष’ बवाली देखे।

शोषित और पीड़ितों की जब
पीड़ा हृदय नहीं सह पाया।
जब-जब उनकी दुर्गति देखी,
तब-तब मैंने शस्त्र उठाया।

और उसी प्रतिकार मात्र से,
मुझको कानूनी बद्ध कर दिया।
राजनीति के अगुआओं ने,
मुझको गुण्डा सिद्ध कर दिया।

लेकिन समय-समय पर मैंने,
कुछ-कुछ लोग भले भी पाये।
जो दानवता के विरोध में,
साथ हमेशा मेरे आये।

लेकिन स्वार्थ और लालच में,
छोड़ गये कुछ मुझको ऐसे।
जैसे ज्यादा धन पाने को,
वैश्या ग्राहक बदले वैसे।

तुच्छ स्वार्थों को विचार पर,
मैंने हावी होते देखा।
कभी विचारों के साथी थे,
कभी ‘बीज बिष’ बोते देखा।

मैं विचार की भावुकता मैं,
भौतिकता से पिछड़ न जांऊ।
पर पीड़ा से जलने वाला,
निज कष्टों में जकड़ न जांऊ।

हे ईश्वर कुछ शान्ति मुझे दे,
मैं तेरे कुछ कार्य कर सकूं।
नहीं मुझे सम्पत्ति चाहिये,
लेकिन मैं निर्भार मर सकूं।

आत्मबोध के सभी प्रयासों,
को प्रभु अब ना और हिलाओ।
मैं हूं कौन? कहां है जाना?
मुझको मेरा मार्ग सुझाओ।


कहीं भटक ना जाऊं प्रभु मैं,
हर क्षण के झंझावातों से।
कहीं हृदय से टूट न जाऊं,
प्रतिपल लगते आघातों से।

मुझे माक्र्स के चिंतन से बढ़
सावरकर चिंतन भाता है।
नहीं अर्थ का मैं चिंतक हूं,
मुझे राष्ट्र चिंतन भाता है।

करो कृपा प्रभु मुझ पर ऐसी,
इस चिंतन की धार न टूटे।
भौतिकता के इस अभाव से,
राष्ट्र-धर्म से प्यार न टूटे..

विश्वमंच पर परख देखिये सर्वश्रेष्ठ भाषा हिन्दी है।

आज हिन्द, हिन्दी, हिन्दू का
मान जगत में नहीं रहा है।
इसीलिये भारत का भी
सम्मान जगत में नहीं रहा है।

छोड़ निजी भाषा संस्कृति को
हम ‘पर‘ द्वारे झांक रहे हैं।
त्याग सभ्यता भारत भू की
वैश्या के घर ताक रहे हैं।

और मूढ़ता के बश होकर
हम विकास का स्वप्न देखते।
छोड़ स्वयं के अतुल कोष को
कूढ़े में हैं रतन देखते।

हिन्दी नहीं शब्द का संग्रह
यह भारत मां की बिन्दी है।
विश्वमंच पर परख देखिये
सर्वश्रेष्ठ भाषा हिन्दी है।

धन्य ‘शूलजी’ समिति धन्य है
जो हिन्दी को रक्षित करती।
निज भाषा का मान बढ़ाकर
निज गौरव संरक्षित करती।

और सभी जन संकल्पित हों
नहीं रहेंगे अब भूलों पर।
पुष्पों की रक्षा का केवल
भार नहीं होता शूलों पर।

राजनीति व्यवसाय बन चुकी, केवल ग्राहक है यह जनता।

राजनीति के गलियारों में,
मैंने खूब स्वयं को झौंका।
अब मैं बिल्कुल जान गया हूं,
वहां मात्र धोखा ही धोखा।

जो जितना झूठा होता है,
वो उतना ऊंचा उठता है।
झूठ बोल कर वोट बटोरे,
हर पल जनता को ठगता है।

जो पहले अपराधी होता,
वो फिर नेता बन जाता है।
जनता का प्रतिनिधि बनने पर,
जनता पर ही तन जाता है।

अपहर्ताओं का संरक्षक बन,
निर्दोषों का खून पी रहा।
चोर लुटेरों को शह देकर,
जीवन कितना मस्त जी रहा।

इनकी मक्कारी को देखो,
रिश्वत लें लाइसैंस बनवायें।
ग्राम प्रधानों से मिलकर के,
राशन चीनी तक खा जायें।

ये अपने हित के कारण ही,
जातिवाद का जहर घोलते।
हैं तो नहीं किसी के भी ये,
लेकिन सबसे मधुर बोलते।


पांच बर्ष का दिवा स्वप्न
इनकी वुद्धि को खा जाता है।
इसीलिये हर पूंजीवाला,
निर्वाचन में आ जाता है।

ना कोई उद्देश्य, न निष्ठा,
केवल गाल बजाते रहना।
जनता में गुट बना-बनाकर,
अपनी चाल चलाते रहना।

इनके उथले दर्शन में तो,
राष्ट्र-धर्म ‘‘कुछ चीज नहीं है’
दानवता के पालनकर्ता,
मानवता का बीज नहीं है।

फिर क्यों इन्हें उठायें सर पर,
इनका यह स्थान नहीं है।
राष्ट्र-धर्म जिनको छोटा है,
वह निकृष्ट, महान नहीं है।

राजनीति व्यवसाय बन चुकी,
केवल ग्राहक है यह जनता।
सभी जानते व्यापारों में,
काम सदा बनिये का बनता।

इसीलिये भोली जनता से,
है करबद्ध निवेदन मेरा।
इनको कोई देव न समझो,
समझो इनका असली चेहरा।

वेद और गीता के बल पर, भारत उन्नत करना होगा

फूल अभय के खिलें जगत में,
भय का भूत भगाओ मिलकर।
मिटे व्याप्त अंधियारा मन से,
ऐसे दीप जलाओ मिलकर।

ज्ञान-ज्योति से जीवन के सब,
गहरे तम भी मिट जाते हैं।
है ‘अज्ञानजनित जो पीड़ा,
उसके बन्धन कट जाते हैं।

किन्तु अहम् के झूठे मद से,
ज्ञानी अज्ञानी होता है।
सबको बहुत दिखाये तनकर,
किन्तु अकेले में रोता है।

ज्ञान शब्द से नहीं प्रयोजन,
विद्यालय के मैकाले से।
ज्ञान वड़ी अद्भुत प्रतीति है,
जो मिलता अन्दर वाले से।

ज्ञान वही जिससे अन्तरतम,
का वीणा झंकृत होता है।
उसको कैसे ज्ञान कहें हम,
जिससे मन विकृत होता है।

‘पूर्व’ ज्ञान का विपुल कोष था,
आदिकाल से ग्रन्थ बताते।
जो असभ्य थे पश्चिम वाले,
वे अब हमको ज्ञान जताते।

इसका कारण मात्र यही है,
हम अपना सब छोड़ रहे हैं।
भूल निजी गरिमा गौरव को,
पागलपन में दौड़ रहे हैं।

कुछ धृतराष्ट्र सभी गांधारी,
सोच लिया है सब अन्धे हैं।
पश्चिम का मुंह ताक रहे हैं,
ज्ञानी यीशू के बन्दे हैं।

जिसने ज्योति विश्व को दी है,
आज तरसता है ज्योती को।
स्वावलम्ब, निज खोजें छोड़ीं,
कल को तरसेगा रोटी को।

वहुत हो चुका पागलपन यह,
अब तो शुद्ध करो सब मन को।
अपना ज्ञान बढ़ाता धन को,
पर का ज्ञान मिटाता जन को।

उनकी क्षमताओं के बल पर,
नहीं विश्व से डरना होगा।
वेद और गीता के बल पर,
भारत उन्नत करना होगा।

अपने दुर्गुण छिपा रहे हैं, बने हुए हैं खद्दरधारी।

साठ बर्ष के तुच्छकाल में,
कैसा बंटाधार हो गया।
अपना सबकुछ छोड़ रहे हैं,
अमरीका आधार हो गया।

इतने बर्षों में सीखा है,
हमने केवल बात बनाना।
जो हम पर विश्वास करें,
उन पर ही तलवार चलाना।

और निरन्तर सीख रहे हैं,
हम नितरोज नई मक्कारी।

अपने दुर्गुण छिपा अपनरहे हैं,
बने हुए हैं खद्दरधारी।

अन्दर दानव, बाहर मानव
ऐसा रोज यहां चलता है।
असत् सत्य पर भारी रहता
मानवाता का दिल जलता है।

अपराधों के पोषणकर्ता,
दुव्र्यसनों से लिपे हुए हैं।
जिनके दामन दाग भरे हैं,
स्वेत वस्त्र में छिपे हुए हैं।

अन्दर जो दारिद्र भरा है,
उसको धन से पाट रहे हैं।
बस उथली तृप्ति पाने को
निर्बल का हक चाट रहे हैं।


गुण्डे, पाखण्डी, दुष्टों ने
भगवा का भी सार खो दिया।
स्वार्थ और लालच के कारण
आध्यात्मिक आधार खो दिया।

बड़े उच्च मंचो से देखों,
हमको त्याग सिखाते भोगी।
हमने भी अपनी आंखों से,
मुहर बनाते देखे योगी।

और मूढ़ता भारत भू की,
श्रद्धा केवल आवरणों पर।
तन-मन-धन सब अर्पित करते
ध्यान नहीं कुछ आचरणों पर।

यदि हम स्वयं मुखोटेधारी,
तो हम क्या पहचान सकेंगे।
उच्च-तुच्छ क्या होता जग में,
कैसे उसको जान सकेंगे।

बिना ज्ञान की नकल वृत्ति ने
हमको क्या-क्या दिखलाया है।
सिर्फ बिदेशों की शैली पर,
नंगापन ही सिखलाया है।

युवक आज सब डिनो मारिया,
युवती बनने लगीं बिपासा।
छोटे-छोटे वस्त्र पहनतीं,
बचा नहीं संकोच जरा सा।

बने हुए हो अगर आधुनिक
ऐसा कुछ करतब दिखलाओ।
जैट विमानों की टक्कर पर,
उड़ने वाली कार बनाओ।

यदि भारत उन्नत करना है,
यह दोहरापन खोना होगा।
अन्दर-बाहर, बाहर-अन्दर
एक आदमी होना होगा।

इस चरित्र के दोहरेपन से
केवल भ्रम ही भ्रम बढ़ते हैं।
और दोगलों की वांणी से
निर्बल आशाऐं करते हैं।

रामलला की जन्म भूमि से,
सब मारीच हटाने होंगे।
सन्त और सज्जन को मिलकर
अपने हाथ बढ़ाने हांेगे।

यदि ऐसा कुछ कर दिखलाया,
भारत जग में छा जाएगा।
और जगत को दिशा दिखाने
बिश्वमंच पर आ जाएगा।

जो दिन रात परिश्रम करते, वो बेचारे नित्य रो रहे।

सत्य-धर्म पर चलने वाले,
तो भूखे बेजार पड़े हैं।
निर्लज्जों के घर-द्वारों पर,
कैसे बंदनवार लगे हैं।

जो खाते रिश्वत की रोटी,
उनके मोटे पेट हो रहे।
जो दिन रात परिश्रम करते,
वो बेचारे नित्य रो रहे।

जो समाज की बात न जानें,
ना जानें जो देश धर्म को।
जो जानंे बस धन का संग्रह,
ना जानें निज पाप-कर्म को।

वे ही देखो घूम रहे हैं,
पहनेे कुर्ता नई कार में।
सारा दिन अय्याशी करते,
रातें कटतीं बियर बार में।

जो शोषक हैं वे शासक हैं,
ऐसा मित्रो दौर चल रहा।
जो विचार से सृजन सोचता,
वो ही देखो हाथ मल रहा।

जो बोलें कुछ, करें और कुछ,
वे ही जग में मान पा रहे।
अपनी झूठी बातों से ही,
रोज नया सम्मान पा रहे।

क्या ये दानव मिट पायेंगे,
ऐसा कुछ संकेत नहीं है।
जग मिट जाये ये बच जायें,
इससे इनको खेद नहीं है।

लूट रहे सम्पत्ति देश की,
और निजी कोषों में भरते।
और धनाभावों से देखो,
कितने लोग खुदकुशी करते।

देख गरीबों का दुःख इनकी,
आंखें कभी नहीं नम होतीं।
कोई भी रोटी को तरसे,
इनकी लूटें कम नहीं होतीं।

इन सारी बातों से मेरा,
ईश्वर से विश्वास हिल रहा।
देख-देख सूनी आंखों को,
मेरा अब तो हृदय जल रहा।

फिर भी मेरी मांग यही है,
सबकोे रोटी वस्त्र चाहिये।
मर्यादा को बचा सकें सब,
ऐसे ईश्वर अस्त्र चाहिये।

पर ईश्वर तुम देते उनको,
बढ़ा रहे जो दानवता को।
अपने पापी हाथों से जो,
मिटा रहे हैं मानवता को।

कभी-कभी लगता है ऐसे,
तुम ही प्रलय चाहते जैसे।
यदि ईश्वर है बात यही तो,
तुम से कौन बचाये कैसे?

छोड़ रसों को मुनि भागे हैं, नृत्य मेनका का पाया है।

जीवन जब नीरस हो जाये,
क्या उसमें रस धार बहेगी।
जब कोई रस-मुक्त हो चले,
तब दुनिया रसहीन कहेगी।।

बहुत बचाया मैने निज को,
ऐसे सारे अवतरणों से।
नहीं बच सका हूँ फिर भी मैं,
इस रस के वातावरणों से।।

पहले डूबा फिर भागा हूँ,
अंतहीन रस की किरणों से।
अब आकर कुछ लगा कि जैसे,
हल न हुआ कुछ समिकरणों से।।

किन्तु कष्ट की बात नहीं कुछ,
जीवन में सब कुछ घटता है।
रस की चाह जिसे खींचेगी,
वो रस की खातिर मिटता है।।

नहीं झूठ यह अमिट सत्य है,
जो रस छोड़ गये हैं वन में।
मैं दावे से कह सकता हूँ,
तृप्ति नहीं उनको जीवन में।।

छोड़ रसों को मुनि भागे हैं,
नृत्य मेनका का पाया है।

आज खुद से पूंछता हूं, कौन हूं मैं? कौन हूं मैं?

आज खुद से पूंछता हूं, कौन हूं मैं? कौन हूं मैं?
पा सका उत्तरनहीं तो मौन हूँ मैं मौं हूँ मैं।
आ गिरा हूं आज जैसे, स्वप्न की अट्टालिका से।
इसलिए ही बह रहा है काव्य कोई तूलिका से।
आज मुझको स्वप्न के इन झंझटो से मुक्त कर दे।
चाहता है क्या प्रभू तू?आज कुछ तो व्यक्त कर दे।
अब हुई पर्याप्त पीड़ा, बिन विरामों के हे स्वामी।
भेजता है तू जिधर भी, उस तरफ होती है बामी।
भेजता पर पीर हरने, दे निरन्तर पीर मुझको।
मैं निकालूं जिनके कण्टक, वे चुभाऐं तीर मुझको।
ये व्यवस्था भी तेरी प्रभु, रास कुछ आती नहीं है।
खींचता है प्राण तू फिर, जान क्यों जाती नहीं है।
खेल भी तेरी तरह हर, कोई मुझसे हंस के खेले।
और पीड़ा इस हृदय की, ये कभी मुंह से न बोले।
राजपथ की राह पर, जाऊं बिना संसाधनों के।
तो मुझे अब मुक्त कर दे, मोह के तुछ बन्धनों से।
प्रेम की जब राह भेजे, दे घृणा के पुट बिषैले।
प्रेम पर वक्तव्य देते, आदमी कितने कषैले।
जब जिसे चाहे उठा दे, जब जिसे चाहे विठा दे।
तू मेरी इस जिन्दगी का, आज तो पर्दा उठा दे।
या मुझे कुछ कर व्यवस्थित, या मुझे जग से अलग कर।
या घृणा में भेज दे तू, हृदय को मुझसे बिलग कर।
काम क्या इस जग में मेरा, तू मुझे अब बोल दे सब।
कौन हूं मैं ?कौन हूं मैं? आज सब कुछ खोल दे अब।

संक्रमण के काल में भारत दिखाई दे रहा है

हर कदम पर अड़चनों का जाल बढ़ता जा रहा है।
जिन्दगी की दोपहर का सूर्य चढ़ता जा रहा है।

कल्पनाओें में भले ही मिल सके छाया घनेरी।
और कुछ इससे अधिक ना आस ही बाकी है मेरी।

टूटती है मोह-माया, छूटते जाते हैं बन्धन।
हाट में ऐसी खड़ा हूं मोल के लगते है तन-मन।

और करुणा के समन्दर की हिलोरें बढ़ रही हैं।
कुछ मिटाने, कुछ बनाने की कहानी गढ़ रही हैं।


और जैसे दूर मंजिल, कृश पथिक हो, पथ कठिन हो।
साथ ही विकलांग काया फिर भी चलना रात-दिन हो।

क्या कोई इस श्वांसक्रम में अपनी मंजिल पा सकेगा।
लक्ष्य जो दृढ़निश्चयी है क्या वहां तक जा सकेगा।

भोग का है बोलबाला, त्याग है मंची कहानी।
पहनेर नित नव मुखोटे, चल रहे चालेें सयानी।

मांस के टुकड़ों पै जैसे स्वान भूखे टूटते हैं।
लोग वैसे पद प्रतिष्ठा पा खजाना लूटते हैं।

और फिर धन से सबल हो, दूर करना चाहें डर को।
वैभवी दम पर कुचल देते हैं वे प्रतिभा के सर को।

संक्रमण के काल में भारत दिखाई दे रहा है।
चोट अपने दे रहे आरत दिखाई दे रहा है।

राम की आदर्श भू पर बढ़ रहे लंकेेश नितदिन।
हैं निशाचर संगठन में मान-धन लुटता है प्रतिदिन।

राष्ट्र-द्रोही शक्तियां फिर फन फुलाकर बढ़ रही हैं।
राष्ट्र के फिर-फिर विभाजन की कहानी गढ़ रही हैं।

जो कथित हैं राष्ट्रवादी वे लगे बाजीगरी में।
राष्ट्र-मर्यादा भुला दी वोट की सौदागरी में।

इसलिए ही हो व्यथ्ति मैं खोजता हूं सज्जनों को।
आवरण से मुक्त चेहरे, सत्यनिष्ठा, सद्जनों को।

हो न कोई मेरा अनुचर, सब विचारों के हों साथी।
उनको आकर्षित करें ना फूल, पंजा और हाथी।

ओर बन कर एक शक्ति वे जगाएं सुप्तजन को।
फिर से मिलकर सींच डालें सूखते जाते चमन को।

चल रही थी कुछ बरस से धार अब रुक सी रही है।
मात्र धन-दौलत के युग में क्षमता कुछ चुक सी रही है।

हैं जो रिश्ते नाते तन के वे निभाने ही पड़ेंगे।
हैं जा ऋण गत् जन्म के वे सब चुकाने ही पड़ेंगे।

अंततः यह याचना ना स्वर्ण मंडित नाम आए।
राष्ट्र के उत्थान पथ पर मेरी काया काम आए।

मानव का मानव से अब तो कोई प्यार नहीं दिखता

मानव का मानव से अब तो कोई प्यार नहीं दिखता है.
यह दुनिया बाजार हो गई, आज यहाँ सब कुछ बिकता है.
बात गई भाईचारे की.
बढ़ती है रट बँटवारे की.
दया प्रेम कुछ कर्म नहीं है.
मानवता अब धर्म नहीं है.
अंध हो रही तरूणाई है.
पशुता ने ली अंगड़ाई है.
धर्म गया ईमान खो गया.
अन्दर का इन्सान खो गया.
सबकी चाहें भरें उड़ानें जन्नत से सबका रिस्ता है।
यह दुनिया बाजार हो गई, आज यहाँ सब कुछ बिकता है.
जब से जितना नोट बढ़ा है.
मानवता में खोट बढ़ा है.
चोट बढ़ी अत्याचारों की.
बात बढ़ी भ्रष्टाचारों की.
शब्दों का व्यापार बढ़ा है.
पापों का संसार बढ़ा है.
निज-हित में मक्कार बढ़े हैं.
घर-घर में गद्दार बढ़े हैं.
नोटों की गड्डी के आगे ऋत को नर अनृत लिखता है।
यह दुनिया बाजार हो गई, आज यहाँ सब कुछ बिकता है.
रिश्ते नाते विक जाते हैं.
नेता-मन्त्री चुक जाते हैं.
बिकता अपना संविधान है.
पैसे से बनता बिधान है.
यही हाल तो देश बिकेगा.
धर्म यहाँ किस भाँति टिकेगा.
इक दिन शैतानी छल होगा.
प्रश्न भला कैसे हल होगा.
राम कह गये कृष्ण कह गये ‘सत्य’ सदा बल र्से िटकता है.
यह दुनिया बाजार हो गई, आज यहाँ सब कुछ विकता है.

जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.

जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.
अब फिर से उठ रहीं हंै बगावत की आँधियाँ.
अब फिर से खून सस्ता है मंहगी हैं पोथियाँ.
लाशों को देख कर भी हृदय हेोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हैं शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
तस्वीर अपनी अब तो दर्पण में देखिए.
सीमाऐं अपनी पीछे के चित्रण में देखिए.
घातें न होतीं प्रेम रस जो घोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हंै शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
इनकी तो पहले क्या नहीं देखीं हैं बाजियाँ.
फूलों की टोकरी पै भी, फेकीं है वर्छियाँ.
अपराध फिर भी इनका कोई तौलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.
बक्तव्य राजनीति का दादुर की चीख है.
कायर पडे़ समाज को, बातों की भीख है.
संयम भी है कि आज तलक डोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हंै शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
वर्षों से चले आ रहे निन्दा के दौर हैं.
एड़ी से मसल देते हैं वे ‘कोई और’ हैं.
आतंक सदा ही तो खुला डोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
कहता हूँ पद्य में जो, तो कहते हो कवि है.
कहता हूँ गद्य, कहते हो नेता यह भी हैं.
मन किन्तु इशारों की तहें खोलता नहीं
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.