Thursday, January 10, 2013

मुक्तक-फूल कांटों में भी खुलकर के जिया करते हैं


लोग बे-बज़हा जमाने की बात करते हैं
और घर से भी निकलने में पांव डरते हैं
अब तो हर बात सियासत से भरी लगती है
कहने वाले न सिर्फ कहते वो तो करते हैं

फूल कांटों में भी खुलकर के जिया करते हैं
छाया देते हैं जो भी; धूप पिया करते हैं
हम भी औरांे के लिए थोड़ा पिघलकर देखें
सिर्फ पाने के लिए मांग किया करते हैं

फिर से भारत को नये दौर में लाना होगा
प्रेम पूंजी है यहां सबको बताना होगा
हो न भय, भूख, मेरे देश, के किसी घर में
इसलिए भ्रष्टता का मूल मिटाना होगा

जिसकी आँखों में जमाने का दर्द होता है
देख दुनिया को वही गर्म-सर्द होता है
जिसकी आँखों में लपट दिल में पीर होती है
सच्चे मायनों में एक वो ही मर्द होता है

तुम अंधेरे में सितारों की बात करते हो
इतने तन्हा हो सहारों की बात करते हो
काश पहले से ही जो खुद को संवारा होता
तुम भंवर में भी किनारों की बात करते हो

जब भी भारत का जवां रक्त मचल जाता है
कितना भी हो ये बुरा वक्त संभल जाता है
फिर न ये ताज, न सरताज नजर आते हैं
बेईमानों से भरा तख्त बदल जाता है