आज नेता देश को जातियों में बाँट रहे हैं.
हरे-भरे वृक्ष की शाखाऐं काट रहे हैं.
शायद इसीलिए सब हमें पीछे ठेलने लगे हैं.
क्योंकि अब वे शाखा ही नही पत्तों से भी खेलने लगे हैं.
ऋषि मुनियोें ने इसे चार भागों में ही गढ़ा था.
उससे आर्य भारत आगे ही बढ़ा था.
उनकी भी सृजनकारी परिभाषाऐं थी.
जातियाँ जन्म से नहीं, सांकेतिक भाषाऐं थी.
संस्कृति, समाज व असहायों की रक्षा का
जो लेते थे भार.
मानवता की रक्षा में उठाया करते थे हथियार.
जिनका लक्ष्य था देवत्व की रक्षा दानवता का संहार
जो निजी हितों की जलाते होली.
जिन्हें नहीं हटा सकी तलवार और गोली
जो त्याग कर मोह कूद जाया करते थे रण में
स्वाभिमान के लिये मिट जाया करते थे क्षण में
कभी करते थे लंका पर अभियान.
चूर-चूर करते थे दुष्टों का अभिमान
सत्य रक्षा के लिए महाभारत भी रचाया करते थे
घास फूंस की रोटियाँ भी खाया करते थे.
वे ही क्षत्रिय कहलाया करते थे.
और जो एक लंगोटी ही अपनी संपदा मानते थे.
इदन्नमम् में ही जीवन का सार जानते थे.
जगाया करते थे अलख धर्म व राष्ट्र रक्षा के लिये.
घूमा करते थे घर-घर भिक्षा के लिये.
जिनके लिये संग्रह पाप था दुष्कर्म था.
परहित ही जिनके लिये श्रेष्ठ था सत्कर्म था.
जो गढ़ा करते थे चन्द्रगुप्त, निर्मित करते थे शिवाजी
बुद्धि से शक्ति संयोजन कर जीतते थे हर बाजी
जो किया करते थे आत्मा पर शोध
कराते थे परमात्मा का बोध
करते थे निडर हो जिह्वा से वार
तो कभी उठा लेते थे तलवार
जीवन और मरण सिखलाया करते थे
वही ब्राह्मण कहलाया करते थे.
शुभ लाभ जिनका मूल मन्त्र था
जिनके हाथ में सम्पूर्ण अर्थतंत्र था
जो शोषण रहित आर्थिक व्यवस्थाओं का पालक था
समाज व्यवस्था का आर्थिक संचालक था
राष्ट्रहित में सर्वस्व लुटाने को रहता था तत्पर
भूखे की रोटी का भार भी था जिस पर
धर्म की पकड़े रहता जो राह
आवश्यक होनेपर बनता था भामाशाह
सब कुछ देकर भी जिसे न क्लेश होता था
वही तो आदर्श वैश्य होता था.
और न जो राष्ट्रहित दे सकता था तन, बुद्धि न मन
और जिसके पास था नहीं धन
निजी श्रम से स्वहित के साथ समाज हित भी जिसे भाता था
साधना से कभी क्षत्रिय तो कभी ब्राह्मण, वैश्य बन जाता था
वही तत्कालीन समाज व्यवस्था में शूद्र कहलाता था.
सभी एक दूसरे के पूरक थे, अंग थे
सभी के अपने-अपने रंग-ढंग थे.
किन्तु आज हम सब बहकाये जा रहे हैं
एक नाव सवार चार यात्री एक-एक कर डुबाऐ जा रहे हैं
और कौन दे रहा है इसे बल, कौन कर रहा है छल,
कहीं वे ही तो नहीं जो हमें करना चाहते हैं बर्बाद
जाति के नाम पर वोट लेकर करना चाहते हैं आबाद
जो कभी आरक्षण, तो कभी जातीय जनगणना के अस्त्रों से
कह रहे हैं हम पर प्रहार
कर ही डालेंगे सम्पूर्ण संहार.
इनसे बचना समय की जरूरत है
यह तभी सम्भव है जव हम स्वयं को जानें
बन्द आखों से न मानें
मैं जब पूंछता हूँ स्वयं से कि मैं कौन हूँ?
तो अपने को चारो वर्णों का पाता हूँ
वह कैसे? यह बताता हूँ
जब करे कोई मुझ पर चोट, तो हो जाता हूँ क्षत्रिय
जब करे कोई मेरी संस्कृति पर वार, धर्म पर प्रहार
तो मैं स्वयं को ब्राह्मण होने से रोक नहीं पाता हूँ
और जब सताती है पेट की आग तो तत्काल वैश्य बन जाता हूँ
जब स्वकेन्द्रित होती है चेतना तो क्षुद्र होता हूँ
मात्र मानव होने मैं ही गर्व करता हूँ
इसलिये तुम भी स्वयं को जानो, बन्द आखों से मत मानों
कहीं तोड़ ही न डालें हमें उसके हाथ
सदा के लिये ही न छूट जाये हमारा साथ
हम बढ़ाते रहें जातिवाद, और रौंद डाले हमें मजहबी उन्माद
इसलिए हमें एक सूत्र में स्वयं को बांधना है
यही आज की परम साधना है.
भाई-भाई का भाई से प्रेम, यही श्रेष्ठतम कर्म है
यही है देशभक्ति, यही सबसे बड़ा धर्म है........