Saturday, January 12, 2013

लग रहा है ‘‘हर सुनहरी चीज’’ सोना हो गई.


आदमी की तृप्ति-‘‘नोटों का बिछोंना हो गई है.
लग रहा है ‘‘हर सुनहरी चीज’’ सोना हो गई.
हो गया विक्षिप्त मानव
अब स्वयं से दूर रहकर.
रह गया है मात्र मलवा-
बच गया जो महल ढहकर.
भौतिकी परिवेश में अब
खो गई हंै भावनाऐं.
स्वार्थ अग्नि में झुलस कर
रह गईं संवेदनाऐं.
सतपथी की जिंदगी तो मात्र रोना हो गई.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
‘प्रेम’ जैसे शब्दतल पर
वासनाओं के समन्दर.
पाशविकता आचरण में
कल्पनाओं में है मन्दर.
आधुनिक फिल्मी तरज पर
चल रही सारी कहानी.
अरुव्यसन की पूर्ति में ही
देश की गलती जवानी.
भीड़ ऐसी माँ मही को भार ढोना हो गई है.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
हर नगर और गाँव में
प्रति वर्ष हरि लीला का मंचन.
देखने में धर्म पर है
वास्तविक जनता का वंचन.
आध्यात्म चर्चा आड़ में
है कर रहे मोटी कमाई.
गर करें तुलना तो इनसे
लाख अच्छे हैं कसाई.
खेलते जी भर सभी जनता खिलौना हो गई है.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
देेश आहत भूख से है,
और फिर आतंक छाया.
लाल-नीली बत्तियाँ ले
लूटते जी भर के माया.
आड़ में श्वेताम्बरों की
हो रहे कितने घुटाले.
चाहे फिर स्विस बैंक के
खुल ना सकें मजबूत ताले.
उच्च दर्शन देश का पर सोच बौना हो गई है.
लग रहा है हर सुनहरी चीज सोना हो गई है.

तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये
यूं अकेले-अकेले न कट पायेगी
प्रेम से मिल गिले सब भुला दीजिये

जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

जूझते-टूटते कितनी सदियां गयीं
बोध का पुष्प फिर भी न मन में खिला
श्वेत डाला चले राजपथ की डगर
मन तो काला रहा रह गया अनधुला

बोध का पुष्प मन में खिला लीजिये
जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

राष्ट्र के प्रेम की ध्वस्त हर आस है
अब सृजन की सुखद भावना छल रही
क्षेत्र के, जाति के, वाद कितने खड़े
शीर्ष के स्वार्थ की कामना पल रही

छोड़ हर वाद दिल को मिला लीजिये
जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

प्रश्न हैं सैकड़ों किन्तु उत्तर नहीं
यह उफनती लहर सब डुबो जायेगी
नाविकों से कहो नाव को खींच लें
डूबती नाव हर चिन्ह खो जायेगी

अब तो पतवार दिल से चला दीजिये।
जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं।
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

दुष्टता से बढ़ी भ्रष्टता देखकर
क्या हृदय को कोई कष्ट होता नहीं
भूख से देश व्याकुल खड़ा चीखता
देख कर दिल तुम्हारा क्या रोता नहीं

नींव तक दुष्टता की हिला दीजिये
जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी।
दर्द की गोद में ही पली जिंदगी।

रुठ जाना मनाना अलग बात है
डूबना पार जाना अलग बात है
जेठ की चिलचिलाती हुई धूप में
छांव पाना न पाना अलग बात है

बर्फ सी ठोस लेकिन गली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

कामनाओं के घनघोर सागर मिले
प्रीति के अधभरे सिर्फ गागर मिले
व्यर्थ की बढ़ रही इस बड़ी भीड़ में
बेवजह दौड़ते से मुसाफिर मिले

देखते-देखते ही ढली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

नाम की उसके माला ही फेरे रहे
ना पता हमको क्यों फिर भी घेरे रहे
देखते ही हमें छुप गई चांदनी
जिंदगी में टिकाऊ अंधेरे रहे

यूं अंधेरों में अकसर चली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

आँँख की कोर तक पीर आती रही
घूंट भर आँँख इसको छिपाती रही
और अन्दर से कोई मसलता रहा
मौन रह आत्मा तिलमिलाती रही

यूं तड़प में निरन्तर पली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

एक दिन देह का देवता भी गया
कर सका कुछ नहीं देखता रह गया
सब सधी भावनाऐं तड़पती रहीं
मैं अकेला यूं ही बेखता रह गया

क्या भरोसा चली न चली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

मोम सा खुद को जलाना ही परम इक साधना ह


मोम सा खुद को जलाना ही परम इक साधना है.,
दिव्यता की ओर बढ़ना ईश की आराधना है.
त्यागना दष्ुवृत्तियों को.
सत्य का सन्मार्ग चुनना.
गिर पड़ें ना हम अधर में,
हो सजग हरि नाम गुनना.
उन परम अनुभूतिओं को शब्द में क्या बांधना है.
मोम सा खुद को जलाना, ही परम इक साधना है.
हो भला उनका भले जो,
दुष्टता का नाश होवे,
धर्म की ज्योति जले अरु,
पाप का जड़मूल खोवे.
तन से मन से और धन से यदि हृदय की भावना है
मोम सा खुद को जलाना, ही परम इक साधना है..
राम का और कृष्ण का
आदर्श था इक ही सदा से
दुष्टता से मुक्त धरती,
मुक्त धरती आपदा से.
धर्म को आधार देना, धार्मिक की कामना है
मोम सा खुद को जलाना, ही परम इक साधना है.
जो दिया उसने दिया है
है समय पर सब समर्पित.
जब हमारा है नहीं कुछ
है उसी का उसको अर्पित.
चाहते पाना असीमित, तुच्छता को लांधना है.
मोम सा खुद को जलाना, ही परम इक साधना है..

मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला

मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.
तन के सम्बन्ध कैसे निभाऊँ भला?

प्रेम भी इक उलझता हुआ जाल है
मोह उससे बड़ा एक जंजाल है
वेदना के सिबा और कुछ ना मिला
हंस पड़ा तालियां पीट कर काल है

मन को ऐसा लगा जैसे जाता छला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

झूठ फैला तो सच ने गमन कर लिया
झूठ ने वश में धरती गगन कर लिया
छटपटाता रहा सत्य, रोया नहीं
अश्रु का आँख ने आचमन कर लिया

है भटकता लिए दर्द दिल में पला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

सुख भी क्या है भला; देह का भान है
धन भी दुनिया में बचने का अनुमान है
दुख परम् दिव्य है आरती की तरह
जिससे पाता मनुज वेद सा ज्ञान है

कौन है चोट खाकर नहीं जो ढला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

सुप्त है, शांत है, मौन अनुराग है
कर्म-कर्तव्य है किन्तु बैराग है
अर्थ सब व्यर्थ हैं इस जगत के अरे
सत्य अन्तर में जलती हुई आग है

अब क्या भटकेगी यह बुद्धि हो चंचला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

मौन भी जब स्वयं नाद होने लगे
बिन हिले होठ संवाद होने लगे
मध्य मेंं ज्योति की चमचमाती किरन
पंछी पिंजरे से आजाद होने लगे

मोल का कुछ नहीं दीप क्षण जो जला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

जो उठकर और उठता है, उसे भगवान कहते हैं.

जो उठकर और उठता है, उसे भगवान कहते हैं.
जो गिरकर और गिरता है, उसे शैतान कहते हैं.
समंदर की लहर जीवन
उतरता और चढ़ता है
सुखों की कल्पना लेकर
दुःखों की ओर बढ़ता है
सभी के काम जे आये, उसी को ज्ञान कहते हैं
जो उठकर और उठता है, उसे भगवान कहते हैं.
बदलते दौर रहते हैं
बदलता ये जमाना है
अटल ये सच है दुनिया का
नहीं कोई फसाना है
इसे ना जो समझ पाये उसे अंजान कहते हैं
जो उठकर और उठता है, उसे भगवान कहते हैं.
निहित निज छोड़ कर देखो
वतन की ओर तो प्यारे
उमड़ते मेघदल देखो
ये बरसायेंगे अंगारे
बचालो उस पुरातन को जिसे हम मान कहते हैं.
जो उठकर और उठता है, उसे भगवान कहते हैं.
उठो भगवान के भक्तो
ले भगवा भाव कुछ मन में
जला लो प्रेम की ज्योति
रहे ना द्वेष जीवन में
भला करता, भला सुनता उसे इंसान कहते हैं.
जो उठकर और उठता है, उसे भगवान कहते हैं.

नहीं भरोसा सिंहासनों पर, दल दल-दल जैसा लगता ह

नहीं भरोसा सिंहासनों पर, दल दल-दल जैसा लगता है
मुश्किल से ही इस कीचड़ में कोई कमल जैसा लगता है


राजसभा जिसको कहते हो
जिसकी मर्यादा समझाते
खुद भी उसका मान न करते
वेशक सर्वोपरि बतलाते

तुम्हें खजाने की चाबी औ’ हमको जंगल सा लगता है
मुश्किल से ही इस कीचड़ में.......................


पता नहीं यह आपाधापी
कब से फैली कब तक फैले
उजले वस्त्र पहनने वाले
हमको तो लगते हैं मैले

तुमको चाहे अमृत हो यह हमे गरल जैसा लगता है
मुश्किल से ही इस कीचड़ में.......................


मांग रहे जो देश समूचा
उन पर सोने की बरसातें
मांग रहे जो रोटी-कपड़ा
उन्हें गोलियों की सौगातें

तुम उनको अपराधी कहते हमें सरल जैसा लगता है
मुश्किल से ही इस कीचड़ में.......................


लूटपाट से मन को भरना
यह अच्छा व्यवहार नहीं है
जरा सोच कर देखो तुम भी
इच्छाओं का पार नहीं है

झौंपड़ियों का सुख भी हमको स्वर्णमहल जैसा लगता है
मुश्किल से ही इस कीचड़ में.........................


देश लुटा है और लुट रहा
तुम भी प्यारे कुछ तो बोलो
शोषण पर अत्याचारों पर
मुट्ठी भींचो मंह को खोलो

मैं कहता हूं तो यह तुमको गीत गजल जैसा लगता है
मुश्किल से ही इस कीचड़ में.........................

तुमने थोड़ा नाम कर लिया, हम थोड़ा बदनाम हो गये




हमने सब की पीड़ा समझी, हमने सब का दुख पहिचाना
सबको ही अपना समझे हम, गैर किसी को भी ना माना
इस कलियुग में हम जैसों के, सारे काम तमाम हो गये
तुमने थोड़ा नाम कर लिया, हम थोड़ा बदनाम हो गये

राजनीति का अर्थ तुम्हारा, राशन, रिश्वत, रुतबेदारी
हम इसमें भी खोजा करते, खुली-छिपी सारी मक्कारी
खास रहे तुम मक्कारों के, दूर रहे हम आम हो गये
तुमने थोड़ा नाम कर लिया, हम थोड़ा बदनाम हो गये

तुम बर्दी का अर्थ समझते, प्राण बचाना और दलाली
हम कहते कर्तव्य निभाना, करना निर्बल की रखवाली
हम से तो तुम ही अच्छे हो छोटे-मोटे काम हो गये
तुमने थोड़ा नाम कर लिया, हम थोड़ा बदनाम हो गये

तुम कविता का अर्थ समझतेे, पायल, लाली, जमकर ताली
हम तो सच का सच कहते हैं, चाहे दो तुम जी भर गाली
या तो तुम जोकर बन बैठे, या गोपी या श्याम हो गये
तुमने थोड़ा नाम कर लिया, हम थोड़ा बदनाम हो गये

हम जीवन का सार मानते रोटी, कपड़ा, श्रेय कमाना
तुम तो सारी कला जानते, कैसे भी बस दाम बनाना
तुम लक्ष्मीजी के प्रिय बाहन, अपने चक्के जाम हो गये
तुमने थोड़ा नाम कर लिया, हम थोड़ा बदनाम हो गये

जब समय मिलता घड़ी को देखता चलते

जब समय मिलता घड़ी को देखता चलते।
इक उतरती दोपहर का सूर्य सा ढलते।
जब समय ...........................।।
है घड़ी सूचक समय की मत इसे खोना
जो समय चूके पड़ेगा बाद में रोना
यह समय ही साहसी की ढाल बनता है
यह समय ही दुष्टता का काल बनता है।
है समय छलता सभी को हम नहीं छलते
जब समय ...........................।।



इक घड़ी थी वो कभी जब राम का यश था
इक घड़ी जब विश्व भर को कृष्ण में रस था
इक घड़ी जब बुद्ध की दुनिया दिवानी थी
बंधुता की, प्रेम की सब में रवानी थी
दौर ऐसा हर हृदय प्रभु भाव थे पलते
जब समय ...........................।।
इक घड़ी जब दुष्टता का नृत्य था भारी
उस घड़ी में आर्त थे निज देश नर-नारी
उस घड़ी में देवता भी शान्त सोता था
उस घड़ी में सत्य भी बेजार रोता था।
घर, नगर और गाँव जैसे फूंस से जलते
जब समय ........................।।
यह घड़ी सिंहासनों पर चोर बैठे हैं
शर्म तो बिल्कुल नहीं पुरजोर बैठे हैं।
देश का श्रम लूटते खाते मवाली हैं
भारती पर एक धब्बा और गाली हैं।
देखते हम मौन बैठे हाथ हैं मलते
जब समय ..........................।।
इस घड़ी में नफरतों की पौध बढ़ती है।
दुष्टता सिंहासनों की ओर चढ़ती है।
बुद्धि जागे साथ में ही वीरता जागे।
उस घड़ी में ही बढ़ेगा देश यह आगे।
फिर घड़ी भर ना लगेगी दुष्टता ढलते
जब समय ......................।।

यह है अंतिम सत्य शरीरों को मरना है

जिस कारण जीवन का स्वाद कसैला होता।
जिसके दम पर अमृत पान बिषैला होता।

किन्तु नहीं हूं झूठ, अमिट हूं, अटल सत्य हूं।
नहीं कल्पना कवि की सबसे बड़ा तथ्य हूं।

क्या तुम मुझको नहीं अभी पहचान सके हो।
यही मुझे अफसोस नही क्यों जान सके हो।

वही मृत्यु जो नये जन्म से पूर्व मिली थी।
तुम जब-जब थे बढ़े तुम्हारे साथ चली थी।


मेरे अनुभव का न यहां कोई सानी है।
मैं जीवनदात्री न कोई मुझसा दानी है।

किन्तु युगों से देख रही हूं मैं सृष्टि को।
नहीं जान पाई फिर भी मानव दृष्टि को।

धन संग्रह में लगे हुये मोटे सेठों को।
रक्त चूस कर भरे हुये मोटे पेटों को।

उचित समय पहचान उठाया मैंने उनको।
उसी समय बस प्यारे ने पहचाना मुझको।

बोला-छोड़ मुझे पापिन मैं जी न सका हूं।
जीवन का रस कभी चैन से पी न सका हूं

मैंने तो आनंद सदा ढूंढ़ा था धन में।
इसीलिये ना मिली तृृप्ति मुझकांे जीवन में।

एक बार जब मैंने एक उठाया नेता।
मेरी सूरत देख एकदम से वह चेता।

मुझसे बोला मुझे अभी मंत्री बनना है।
जो मेरा आधार अभी उन पर तनना है।

अरे डंकिनी तुझे जरा भी शर्म न आती।
लगा पदों की दौड़ मुझे क्यों है ले जाती।

योगी और मनीषी ही मुझको समझे हैं।
जब भी होता तेल खत्म तब दीप बुझे हैं।

जो प्रकाश देते हैं जग को अंधियारे में।
जो दीप जला करतेे तम के गलियारे में।

उन्हें प्रभू के चरणों में अर्पित करती हूं।
पाकर प्रभु आशीष हृदय गर्वित करती हूं।

परहित जीने वाले ही मुझको रुचते हैं।
और स्वार्थी भी मेरा क्या ले लेते हैं।

परहित जीने वाला रहता है तृप्ति में।
और अंत पर प्राण चले जाते मुक्ति में।

जिसको पीड़ा प्यारी वो क्या मेरी माने।
कंकड़ पत्थर संग्रह में ही जीवन जाने।

मेरे भय से सत्य नहीं कहते बनता है।
स्वाभिमान खोकर वो अपमानी बनता है।

किन्तु बता दूं मैं न आत्मा को हनती हूं।
देह बदलकर सृष्टिक्रम जारी रखती हूं।

उठा रही सदियों से दुष्ट और महान को।
एक भाव से देख रही बूढ़े जवान को।

छोड़ो मुझसे डरना तनकर जीवन जीओ।
स्वाभिमान से रहो तनिक भी गरल न पीओ।

नहीं आज तक कोई अमर बना है भय से।
अमर वही जो जीवन जीता सदा अभय से।

यह है अंतिम सत्य शरीरों को मरना है।
सौ-सौ जीवन जिओ नहीं मुझसे डरना है।

लोक सेवा में ही तो छिपा सार है

लोक रंजन नहीं लोक भंजन नहीं.
लोक सेवा में ही तो छिपा सार है.
वो यहीं है कहीं, किन्तु दिखता नहीं.
रूप उसका ही दिखता ये संसार है.
लोक सेवा में.......................

भक्त के भाव में, सत्य के ताव में.
जल रही आग में, डूवती नाव में.
खोज लो वरना जीवन ये बेकार है.
लोक रंजन नहीं लोक भंजन नहीं.
लोक सेवा में.......................

विद्वतों ने कही, चर-अधर में वही.
रूप उसका वही धारण जो रही.
नर की सेवा में नारायणी द्वार है.
लोक रंजन नहीं लोक भंजन नहीं.
लोक सेवा में.......................

दीन उद्धार में, देश के प्यार में.
दुष्ट की हार में बीच मझधार में.
शान्ति दे जो तुम्हें बस वही सार है.
लोक रंजन नहीं लोक भंजन नहीं.
लोक सेवा में.......................

महल बनाने की खातिर कुछ झौपड़ियों को ढा देना ह

पुष्पों ने उपवन से पूछा,
बूँदों ने सावन से पूछा.
छाया ने पूँछा वृृृक्षों से,
हमने भी अच्छे-अच्छोें से.
प्रश्न सरलसा किन्तु कठिन भी,
जीवन क्या है? जीवन क्या है?
उपवन बोला ज्ञान नहीं है,
फिर भी इतना जान गया हँू.
जी भर गन्ध लुटाते जाना,
और सदा जीना खुल कर के.
और समय पाकर मुरझाना
सावन बोला तपती भू पर.
बरसो सौंधी गन्ध उड़ाओ,
जीवन देना, अपना जीवन.
तृष्णा को तुम सदा वुझाओ,
वृक्षों ने समझाई छाया.
तुम तो हो मेरा ही साया,
मैं लकड़ी फल सभी लुटाता
मुझको कोई मोह न माया.
हमने बहुत खगाले सज्जन,
और टटोले संतों के मन.
तरह-तरह हमको भरमाया
आचरणों से उत्तर पाया
ऊपर कोई मोह न माया,
गहरे में निजता की खाई.
सत्य-अहिंसा धारण करके,
उस पर जमकर करो लुटाई.
धन से तन की चमक बढ़ाओ,
भाँति-भाँति से लूटो खाओ.
जीवन बंगला में गाड़ी में,
जीवन मल-मल की साड़ी में.
जीवन पद को पा लेना है,
महल बनाने की खातिर कुछ.
झौपड़ियों को ढा देना है.
घमासान सा सभी ओर है,
छोटा कोई बड़ा चोर है.
मानवता है सिसकी-सिसकी.
कब ले जायें अन्तिम हिचकी,
पशु मानव की तुलना से भी.
पशुओं का सम्मान गिरेगा.
ठुंठ कहा तो त्याग भरे ?
वृक्षों का भी अपमान बढ़ेगा.
जीवन का बदला पैमाना
मानवता का मोल न जाना.
पर पीड़ा की पीड़ा क्या हो,
दानवता का भरा गरल है.
जो खुद को मानव कहलाता हैं
उसे छोड़ प्रत्येक सरल है.

आया है विक्रम संवत खुशियों से इसे मनाय

आया है विक्रम संवत खुशियों से इसे मनायें
निज भाषा निज ज्ञान सर्मपित ज्योतित दिये जलाऐ
सृष्टि के उदगम की देखो घडी पुनः आयी है
मौसम भी खुशहाल हुआ है नव आभा छायी है
यह युगाब्द का द्योतक है प्यारा नववर्ष हमारा
बीत चुके पर्वों ने इसको गहरे हृदय पुकारा
चैत्र सुदी पड़वा से ज्यों-ज्यों मुखरित चाँद दिखेगा
जौ-गेंहूॅ की चमक बढ़ेगी सबका मन हरसेगा
और राम की नवमी पर फिर भारत झूम उठेगा
सियाराम की ध्वनि से सारा कण-कण झूम उठेगा
वहीं चले आयेंगे फिर बैसाख फसल के राजा
हर घर में चूल्हा सुलगेगा अन्न मिलेगा ताजा
नहीं कभी क्षय होने वाली अक्षय तीज मनेगी
सीता नवमी के व्रत से भी बिगड़ी बात बनेगी
ज्येष्ठ माह राणा प्रताप का जन्मदिवस लायेगा
वहीं दशहरा गंगा मैया की महिमा गायेगा
फिर अषाढ़ में सूर्य देव की महिमा का विधान है
गोवर्धन में मुड़िया पूनौं का मेला महान है
धरती मां की प्यास बुझाने को आयेगा सावन
रक्षा-धर्म सिखाने वाला लेकर रक्षाबन्धन
माह भाद्रपद कृष्णजन्म की धूम लिए आयेगा
रिमझिम मस्त फुहारों में कण-कण गीता गायेगा
माह आश्विन पाप विनाशक विजयादशमी लाये
शरद पूर्णिमा बाल्मीकि का जन्मदिवस बतलाये
कार्तिक माह लिए आता है रिश्तों की गहराई
करवा चैथ व्रतों ने कितनों की है उम्र बढ़ाई
दीप दिवाली के कोना-कोना जगमग करते हैं
घोर अमावस का तम मिट्टी के दीये हरते हैं
मार्गशीर्ष का माह रामजी का विवाह होता है
वहीं अष्टमी को दुर्गा शक्ति पूजन होता है
पौष माह में मालवीय जैसा अवतारी आया
स्वाभिमान, शिक्षा का जिसने घर-घर अलख जगाया
माघ मास में होता है माँ सरस्वती का पूजन
श्री गुरुजी का जन्मदिवस श्री रवीदास का अर्चन
इसी काल से पतझड़ जाता ऋतु बसंत आती है
हर टहनी पर कलियों खिलतीं शाखा इतराती है
पूर्ण वर्ष की कटुता हरने को आता है फागुन
पाप जलाकर होली में मन को करते हैं पावन
प्रेम भरे रंगों की सब पर ही फुहार होती है
शत्रुभाव मिटता है मन से नमस्कार होती है
आओं करें विचार विदेशी वर्ष हमें क्या देंगे
उल्टे-सीधे पर्व हमारी शुचिता को हर लेंगे
सोचो भगिनी-बन्धु स्वदेश वर्ष बड़ा पावन है
कितना भाव भरा है इसमें कितना मनभावन है
लें संकल्प विदेशी दर्शन को अब दूर भगायें
आया है विक्रम संवत खुशियों से इसे मनायें

कोई कब तक सहेगा, और चुप भी रहेगा.

भाग्य के बल पर भला कब तक रहेगा ?.
वो जहर धीमा भला कब तक सहेगा ?.
विचारो ! लूट के इस खेल में संलिप्त बंधू.
कोई कब तक सहेगा ? और चुप भी रहेगा.
आजादी का लाभ सिर्फ तुमने पाया है.
उसके श्रम का माल तुम्ही ने तो खाया है.
जिस खूँ पर आजादी की आधार शिला है.
छः दशकों में उसको कुछ भी नहीं मिला है.
संतुष्टि का उच्च महल क्या नहीं ढहेगा ?.
कोई कब तक सहेगा? और चुप भी रहेगा ?.
तुम्हारे सूट मंहगे हैं, तुम्हारी साड़ियाँ मंहगी.
तुम्हारे श्वान मंहगे हैं, तुम्हारी गाड़ियाँ मंहगी.
लगता वो दिवस-रैना, उदर की आग मिट जाये.
समझता भार जीवन को कि कैसे भी ये कट जाये.
न तुमने मोल उसके स्वेद-बिंदू का कभी समझा.
मशीनों की तरह खेले न तुमने आदमी समझा.
सजा लो खूब सोना, किन्तु फिर भी यह लुटेगा.
कोई कब तक सहेगा, और चुप भी रहेगा.

संयुक्त परिवार

बसुधा को परिवार बताने वाले फूट रहे हैं,
ईश्वर हाथों बंधे नेह के बन्धन टूट रहे हैं।
भोग-भावना कहें याकि ईश्वर का कोप कहें हम,
विकृत भारत कहें याकि आधा यूरोप कहें हम।
जो सींचे नौमाह रक्त से उसको छोड़ रहे हैं,
जिसने स्वेद बहाकर पाला, नाता तोड़ रहे हैं।
जो भूखे भी रहें किन्तु हमको भरपेट खिलाते,
और अंत हो विवश स्वयं ही वृद्धालय को जाते।
धन दौलत की भोग-भावना और गिरा देती है,
तुच्छ सुखों की दौड़ बन्धु से दूर करा देती है।
इस कुत्सित वृत्ति पर हमको चिन्तन करना होगा।
क्यों इतना गिरते जाते यह मन्थन करना होगा।
क्यों ना भारत को फिर से इसकी सीमा में लायें,
प्रेमपूर्ण हम एक रहें भले ही आधी रोटी खायें।
और रखे हम ध्यान कहीं सुख का आधार नहीं है।
वहां धर्म भी नहीं जहां साझा परिवार नहीं है।
देवभूमि भारत को फिर उसके स्वरूप में लायें।
एक बनें और नेक बनें साझा परिवार बसायें।

अब जागो भाई सौ प्रतिशत मतदान करो


है लोकतंत्र यह हितकारी सम्मान करो।
अब जागो भाई सौ प्रतिशत मतदान करो।।
जब सोते हो तो लोकतंत्र सो जाता है।
गन्दे हाथों पड़ लूटतंत्र हो जाता है।
फिर पाँच वर्ष हम यूं ही छलते रहते हैं।
वे मन में आये वैसे चलते रहते हैं।
अब तक क्या खोया-पाया इसका ज्ञान करो।
अब जागो भाई सौ प्रतिशत मतदान करो।।




मत देना सत्ता गुण्डे और मवाली को।
ना जातिवाद ना भ्रष्टों और बबाली को।
मत चुनना जिसका दिल, दल कपड़े जैसा हो।
मत चुनना जिसका जीवन केवल पैसा हो।
है स्वप्न शहीदों का कुछ इसका मान करो।
अब जागो भाई सौ प्रतिशत मतदान करो।।

उंगली का हल्का सा दबाव देना होगा।
प्रगति के पथ पर यूपी को खेना होगा।
माँ-बहिनों, चाची-ताई को आना होगा।
भैया दादा-दादी को भी लाना होगा।
है महायज्ञ सब आहूति का दान करो।
अब जागो भाई सौ प्रतिशत मतदान करो।।

बहुत हो चुका खेल नहीं अब सहना है।
अच्छा चुनना है औरों से भी कहना है।
भय, भूख सभी यूपी से दूर भगाने को।
इस लुटे-पिटे भारत को सुखी बनाने को।
है शस्त्र एक, है अस्त्र एक मतदान करो।
अब जागो भाई सौ प्रतिशत मतदान करो।।

शहरी विकास की माया

एक दिन कुछ लोग आपस में बतिया रहे थे।
कुछ गांव को तो कुछ शहर को अच्छा बता रहे थे।
अपने-अपने तर्कों से एक-दूसरे को दबा रहे थे।
गांव का पक्षधर फसल उत्पादन को शस्त्र के रूप में
लेकर चिल्लाया-
कि यदि खेती न हो तो भूखी मर जाये शहरी रियाया।
इस बात पर शहरी ने अपनी बाहों को खींचा, मुट्ठियों
को भींचा और बोला-कि शहर की फैक्ट्री न बनाये औजार
तो गांव की खेती हो जाये बेकार।
यह सब सुनकर मैंने कुछ आश्चर्य न जाना।
अपनी बुद्धि से गांव और शहर को
एक-दूसरे का पूरक माना।
फिर एक बार मैं एक बड़े शहर की ओर बढ़ा।
शहर जाने के लिये एक सुपरफास्ट बस में चढ़ा।
जैसे ही बस से उतरकर पैर नीचे जमाया।
कि तेज आवाज में एक आदमी चिल्लाया।
मैंने देखा कि-एक आदमी आगे-आगे एक
थैला लेकर भाग रहा है।
उसके पीछे थैले वाला लोगों से
उसे पकड़ने के लिये चिल्ला रहा है।
ऐसा लग रहा है कि जैसे किसी ने
कुछ सुना ही नहीं।
थैला लेकर चोर चम्पत हो गया था।
थैले वाला भारी मन हो रो गया था।
यह तो अभी पहला ही नजारा था।
मैं जहां था वह तो शहर का
पहला ही किनारा था।
मुझे अभी बस पकड़कर शहर के अन्दर
भी जाना था।
गांव का तो मैं था ही
अभी तो शहरी श्रेष्ठता को पाना था।
बस, अब अपनी गति से चली जा रही थी।
मैं भी उस घटना पर विचार कर रहा था।
कि ‘‘मारो-मारो’’ की आवाज के साथ
कुछ लोगों ने बस में ही एक आदमी को धुन डाला।
और उसे गेट पर लाकर मोटा आदमी बोला-
कि फैंक दो चलती गाड़ी से यह साला शराबी है।
मैं बड़ा चकित हुआ।
उस मोटू सहित अन्य लोगों की भी
भावहीनता पर द्रवित हुआ।
मैंने उन्हें रोका, और पूंछा-
क्या तुमने भी शराब पी रखी है।
तुम भी तो बड़े मक्कार हो।
जो एक शराबी को चलती गाड़ी से
फैंकने को तैयार हो।
कुछ भले लोगों ने शराबी को
ऊपर की ओर खींचा।
उस मोटू ने मेरी ओर देखते हुए
अपने दांतों को भींचा।
मेरा भी गंतव्य आ गया था।
मैं बस से उतरकर पैदल ही
रास्ते पर बढ़ रहा था।
शहरियों की हृदयहीनता पर
विचार कर रहा था।
तभी दूर एक महिला
अपने आंसुओं को बर्षा रही थी।
इशारे से चैन खींचने वाले
लुटेरे को दर्शा रही थी।
हजारों की संख्या में से
एक व्यक्ति का पुरुषत्व जागा।
और वह उस लुटेरे के पीछे भागा।
तभी मोटरबाइक पर सवार
एक पुलिसिया आया।
पीड़ित महिला ने उसे भी
अपना दर्द सुनाया।
उसने अपनी मोटरबाइक को
उसी दिशा में दौड़ाया।
और कुछ ही देर में
लुटेरे के पीछे गए व्यक्ति को
पीटता हुआ लाया।
यह सब दृश्य देखकर
मेरी समझ में आया-
कि यह ही शहरी विकास की माया।
जो जितना हृदयहीन और धन के
चक्कर में विक्षिप्त है,
वह उतना ही विकसित है।
इस सब से भले तो हमारे गाँव हैं
जहाँ कुछ भी न सही,
हर व्यक्ति के हृदय में
कुछ न कुछ सद्भाव हैं।

कोई महान मर गया ह

आज बाजार में बड़ा शोर है।
एक तरफ ही नहीं कई ओर है।
एक आदमी से पूंछने पर पता चला
कि- कोई महान मर गया है।
मरते-मरते भी बहुत कुछ कर गया है।
करोड़ो की सम्पत्ति थी उसके नाम,
आज उसे वह
अनाथालय के नाम कर गया है।
खुद भी जीवन भर आनन्द में रहा।
पर कई गरीबों के घर भर गया है।
यह सब सुनकर मैं बड़ा चकित हुआ।
कभी उत्साहित तो कभी द्रवित हुआ।
द्रवित तो यूं कि महान था
मर गया।
और आश्चर्य यह कि
वह इतनी बड़ी सम्पत्ति पर
कैसे पसर गया।
सम्पत्ति उसके बाप की थी
जब लोगों ने बताया।
तब कहीं जाकर
मेरे दिल को चैन आया।
‘‘खैर इससे मुझे क्या’’
यह सोच घर को बढ़ा।
कुछ दूर चैड़ी सड़क पर
था एक आदमी खड़ा।
तेज गति से वाहन आया,
चढ़ गया उस युवक पर।
न कोई चीख न कोई आवाज,
मर गया वो भी सड़क पर।
धीरे-धीरे लोग आना शुरू हुए।
मुंह बना-बनाकर फिर जाना शुरू हुए।
लगा जैसे आदमी नहीं,
कोई सूअर मर गया है।
और मर कर कुछ अधिक नहीं
सड़क खराब कर गया है।
थोड़ी देर बाद पुलिस आई,
पुलिसिओं से लाश उठवाई,
कपड़े खंगालने पर
एक पर्चा मिला है।
जिसमें परचुनी वाले के
हिसाब का नोटिस मिला है।
पता चला आदमी गरीब था।
घर स्टेशन के करीब था।
दो बच्चा और एक पत्नी
का अन्नदाता था।
आज ही मरने वाले महान
का भी कुछ पैसा
उस पर उधार था।
एक चिट्ठी और मिली
जिससे कुछ बात और पता चली।
उन्हीं ‘महान’ ने
चिट्ठी के माध्यम से,
कहलाया था।
पैसे न देने पर दो रात
उसकी पत्नी को बुलाया था.
 

गरीबी का नहीं प्रमाणपत्र का सम्मान ह



बड़ी भारी संख्या है
आज पण्डाल में।
लगता है कोई मेला लगा है।
इसीलिए भीड़ का रेला लगा है।
हाथ में लाठी लिये हुए पुलिसिए
भीड़ को इधर-उधर भगा रहे हैं।
कारण जानने पर पता चला
कि कोई मंत्री जी आ रहे हंै।
और इसीलिए पुलिसिए अपना
कर्तव्य निभा रहे हैं।
कुछ देर बाद
फड़फड़ाता हुआ हैलीकाॅप्टर आया।
और उसमें से उतरी
एक तीन कुन्तल की काया।
समर्थक गला फाड़ कर
चिल्ला रहे हैं।
मंत्रीजी के पक्ष में
नारे लगा रहे हैं।
काफी गदगद होते हुए मंत्रीजी
मंच पर आये।
थोड़े सकुचाये,
फिर खुलकर मुस्कराये।
घोषणा पत्रों के लिफाफे खोले।
फिर माइक पर बोले।
आज गरीबों को हम चैक देंगे।
गरीबी को उखाड़ कर फैंक देंगे।
और भी बोलने के बाद
वे एकत्रित गरीबों में आये।
एक अधिकारी ने
उन्हें कुछ चैक थमाए।
गरीबों ने कुछ खास किस्म के
राशनकार्ड दिखाए।
और मंत्रीजी ने उन्हें चैक थमाए।
आगे वाले, चैक कोट की जेब में
ले जारहे हैं।
और उनके स्थान पर
पीछे वाले आ रहे हैं।
तभी मैंने देखा कि एक महिला,
फटे कपड़े, नवजात शिशु,
सूखा तन, भीड़ के धक्के खाती हुई
चैक के लालच में आ रही है।
चेहरे से लगता है कि
उसे कई दिन से भूख सता रही है।
एक मोटे पेट के पुलिसिए नेे उसे टोका।
महिला पुलिस की सहायता से रोका।
कड़क आवाज में पूंछा-कहां जा रही है।
महिला ने बताया कि वह विधवा,
वेसहारा और गरीब है।
कई दिन से भूखे बच्चे
की मृत्यु भी करीब है।
उसे थोड़ा आगे तक जाना है।
मंत्रीजी से चैक पाना है।
उस अधिकारी ने अपनी नजरों को
उसकेे चेहरे पर टांगा।
और गरीबी का उससे प्रमाणपत्र मांगा।
वह गरीब थी, यह सही था।
किन्तु उसके पास प्रमाणपत्र नहीं था।
पुलिसया बोला कि तू नहीं जा सकती।
और मंत्री से चैक नहीं पा सकती।
अब वह रोती हुई वापस जा रही है।
उसकी करुण आवाज
मेरा हृदय हिला रही है।
वाह रे भारत, तू कैसे महान है।
तुझमें रहने वाला कितना परेशान है।
और तेरी व्यवस्था तो
तुझसे भी अधिक महान है।
जहां गरीबी का नहीं
प्रमाणपत्र का सम्मान है।

जातिवाद का जहर

आज नेता देश को जातियों में बाँट रहे हैं.
हरे-भरे वृक्ष की शाखाऐं काट रहे हैं.
शायद इसीलिए सब हमें पीछे ठेलने लगे हैं.
क्योंकि अब वे शाखा ही नही पत्तों से भी खेलने लगे हैं.
ऋषि मुनियोें ने इसे चार भागों में ही गढ़ा था.
उससे आर्य भारत आगे ही बढ़ा था.
उनकी भी सृजनकारी परिभाषाऐं थी.
जातियाँ जन्म से नहीं, सांकेतिक भाषाऐं थी.
संस्कृति, समाज व असहायों की रक्षा का
जो लेते थे भार.
मानवता की रक्षा में उठाया करते थे हथियार.
जिनका लक्ष्य था देवत्व की रक्षा दानवता का संहार
जो निजी हितों की जलाते होली.
जिन्हें नहीं हटा सकी तलवार और गोली
जो त्याग कर मोह कूद जाया करते थे रण में
स्वाभिमान के लिये मिट जाया करते थे क्षण में
कभी करते थे लंका पर अभियान.
चूर-चूर करते थे दुष्टों का अभिमान
सत्य रक्षा के लिए महाभारत भी रचाया करते थे
घास फूंस की रोटियाँ भी खाया करते थे.
वे ही क्षत्रिय कहलाया करते थे.
और जो एक लंगोटी ही अपनी संपदा मानते थे.
इदन्नमम् में ही जीवन का सार जानते थे.
जगाया करते थे अलख धर्म व राष्ट्र रक्षा के लिये.
घूमा करते थे घर-घर भिक्षा के लिये.
जिनके लिये संग्रह पाप था दुष्कर्म था.
परहित ही जिनके लिये श्रेष्ठ था सत्कर्म था.
जो गढ़ा करते थे चन्द्रगुप्त, निर्मित करते थे शिवाजी
बुद्धि से शक्ति संयोजन कर जीतते थे हर बाजी
जो किया करते थे आत्मा पर शोध
कराते थे परमात्मा का बोध
करते थे निडर हो जिह्वा से वार
तो कभी उठा लेते थे तलवार
जीवन और मरण सिखलाया करते थे
वही ब्राह्मण कहलाया करते थे.
शुभ लाभ जिनका मूल मन्त्र था
जिनके हाथ में सम्पूर्ण अर्थतंत्र था
जो शोषण रहित आर्थिक व्यवस्थाओं का पालक था
समाज व्यवस्था का आर्थिक संचालक था
राष्ट्रहित में सर्वस्व लुटाने को रहता था तत्पर
भूखे की रोटी का भार भी था जिस पर
धर्म की पकड़े रहता जो राह
आवश्यक होनेपर बनता था भामाशाह
सब कुछ देकर भी जिसे न क्लेश होता था
वही तो आदर्श वैश्य होता था.
और न जो राष्ट्रहित दे सकता था तन, बुद्धि न मन
और जिसके पास था नहीं धन
निजी श्रम से स्वहित के साथ समाज हित भी जिसे भाता था
साधना से कभी क्षत्रिय तो कभी ब्राह्मण, वैश्य बन जाता था
वही तत्कालीन समाज व्यवस्था में शूद्र कहलाता था.
सभी एक दूसरे के पूरक थे, अंग थे
सभी के अपने-अपने रंग-ढंग थे.
किन्तु आज हम सब बहकाये जा रहे हैं
एक नाव सवार चार यात्री एक-एक कर डुबाऐ जा रहे हैं
और कौन दे रहा है इसे बल, कौन कर रहा है छल,
कहीं वे ही तो नहीं जो हमें करना चाहते हैं बर्बाद
जाति के नाम पर वोट लेकर करना चाहते हैं आबाद
जो कभी आरक्षण, तो कभी जातीय जनगणना के अस्त्रों से
कह रहे हैं हम पर प्रहार
कर ही डालेंगे सम्पूर्ण संहार.
इनसे बचना समय की जरूरत है
यह तभी सम्भव है जव हम स्वयं को जानें
बन्द आखों से न मानें
मैं जब पूंछता हूँ स्वयं से कि मैं कौन हूँ?
तो अपने को चारो वर्णों का पाता हूँ
वह कैसे? यह बताता हूँ
जब करे कोई मुझ पर चोट, तो हो जाता हूँ क्षत्रिय
जब करे कोई मेरी संस्कृति पर वार, धर्म पर प्रहार
तो मैं स्वयं को ब्राह्मण होने से रोक नहीं पाता हूँ
और जब सताती है पेट की आग तो तत्काल वैश्य बन जाता हूँ
जब स्वकेन्द्रित होती है चेतना तो क्षुद्र होता हूँ
मात्र मानव होने मैं ही गर्व करता हूँ
इसलिये तुम भी स्वयं को जानो, बन्द आखों से मत मानों
कहीं तोड़ ही न डालें हमें उसके हाथ
सदा के लिये ही न छूट जाये हमारा साथ
हम बढ़ाते रहें जातिवाद, और रौंद डाले हमें मजहबी उन्माद
इसलिए हमें एक सूत्र में स्वयं को बांधना है
यही आज की परम साधना है.
भाई-भाई का भाई से प्रेम, यही श्रेष्ठतम कर्म है
यही है देशभक्ति, यही सबसे बड़ा धर्म है........

‘‘प्रेम’’

‘‘प्रेम’’ एक शब्द
ब्रह्म का स्वरूप
किन्त आज इतना विद्रूप।
आज जिसको भी देखो
वही प्रेम किये जा रहा है.
आखों से मरा सा प्रतीत होता है
फिर भी जिये जा रहा है.
वासनाओं के महल पर
ईंटें चढ़ा रहा है.
कोई पूंछे तो कहता है,
प्यार की पींगें बढ़ा रहा है.
अरे क्या है इसका मर्म
क्या है प्रेम का धर्म
प्रेम कोई खेल तो नहीं है.
फिर क्यों होते हैं बलात्त्कार.
पतियों द्वारा पत्नी पर अत्याचार,
क्यों होता है प्रेम के नाम पर शोषण.
कैसे कर लेते हैं स्वार्थों को पोषण.
इसे देखना होगा हमें जागकर,
कुछ भी नहीं कर सकेंगे
हम इससे भागकर.
जब कोई प्रेम में बढ़ रहा है
फिर क्यों ये सारा विश्व सड़ रहा है.
क्यों गिरता जाता है समाज
क्यों नहीं बच पा रहा चरित्र आज
क्यों होते हैं लगातार विस्फोट
पड़ती है किसी न किसी हृदय पर चोट.
क्यों होते हैं बच्चे अनाथ?
क्यों छूट जाता है उनके
परिवार का साथ?.
बस! यही आकर मन कहता है
सब कुछ अच्छा नहीं है
वाणी में ही है प्रेम हृदय सच्चा नहीं है.
लगता है यह अपने-अपने दर्शन का भेद है
ईश्वर प्रदत्त सहज व्यवस्था में छेद है?
यह आज हो गया है मुहब्बत का पर्याय
बस इसीलिए कुकृत्य ही हो गया है अभिप्र्राय
या फिर लव बन गया है.
विदेशी कीचड़ में सन गया है.
सुगन्ध के स्थान पर आती है दुर्गन्ध.
सात जन्मों का बन्धन भी बन गया अनुबन्ध.
प्रेम की पावनता की आड़ में
अपने दुव्र्यसनों को छिपाया जाता है.
प्रेम के वैराट्य को संकीर्ण कर
तुच्छ स्वार्थों में लगाया जाता है
सृजन का महान बिन्दु आज
अस्तित्व रक्षा को तरस रहा है.
इसके सर पर विध्वंस का
महाघन बरस रहा है.
और भी बहुत कुछ ऐसा चल रहा है,
जिसके आगे फीकी है राम
की रामायण, कृष्ण की गीता.
लुप्त ही न हो जाये कृष्ण की राधिका
राम की सीता.
मुहब्बत और लव मिलकर
न चाट जायें संस्कृति और देश.
खो ही न जाय कहीं प्रेम भरा
बुद्ध का संदेश.
भावनाओं का अदृश्य वेग
दृश्य में व्यक्त करने का प्रयास जारी है
धीरे-धीरे सब कुछ लील
जाने की तैयारी है.

अधर्म के प्रति सूर्य का आक्रोश

सूर्य उगता है अनन्त से
पहले जब वह होता है अबोध
जगत की गति से अन्जान
निर्मल होती है उसकी छटा
होता है उसका महत्व
शुभ होता है उसका दर्शन
लुटाता है जीवन ।
अन्धकार भी दम तोड चुका होता है
हम आंखे मिलाकर करते है उससे संवाद
वह भी हमें सामने से देख रहा होता है
उस समय हमारी परछांई
हमसे भी बहुत लम्बी होती है
फिर प्रकृति की गति से
वह भी समय की सारणी में बद्ध
बढता है विवश
क्या करे, उसे भी तो एक उम्र मिली है
तो फिर वह चलता है
ऊपर की ओर
पानी होता तो नीचे की ओर जाता
आग है बढता है ऊपर
और ऊपर
और अब पाता है कि बौने हैं वे लोग
जिन्हें उसने सामने से देखा है
झूठा है समाज
चाल है सब
जब वह होता है जवान
सब समझ जाता है
इससे, उसका रोष भी
उसके साथ ही बढता है
इसलिए और जलता है
फिर कोई उससे नजर नही मिलाता
सभी खोजते है छांव
बचते है उससे
वह भी अपने धर्म में बद्ध
कर्तव्य के अधीन
चलता रहता है
और उसके साथ ही चलते हैं हम
और जब वह
पाता है कि
सब माया है, प्रपंच है, छलावा है
तो हताश भी होेता
और धीरे-धीरे मुक्ति
की ओर बढ़ने की सोच
जन्म लेती है
फिर तपिश भी होने
लगती है शान्त
लोग जुटने लगते है खुले में
और लगता है कि खुश हैं
तो वह भी खुश होता है
सोचता है वह-
पहले गलत था क्या?
पर नहीं वह तो अधर्म के
प्रति आक्रोश था
और जब जान ही जाता है
संसार का सार,
अधर्म की महिमा को समझ जाता है
समझ जाता है धर्मधारियों का पाखण्ड
जब पूरे दिन का क्षोभ, पीड़ा और दर्दउसे मथते हैं
तो वह सोचता है क्या करेगा कल
वह न जाने का मन बनाता है
मानो विरक्त सा हो जाता है
दूर-क्षितिज के पार
घोर अंधकार में,
हिमालय की कंदराओं में
बैठ कर ध्यान मग्न होने का करता है प्रयास
लेना चाहता है प्रचलित सन्यास
बस तभी, होता है एक अट्टाहास
उसके आस-पास
वह समझ जाता है
प्रेरणाओं की तरंगे
उसे घेरने लगती हैं
और वह फिर से जाने; कुछ देने
और जलने की ऊर्जा जुटाता है
पर उसे रात को नींद नही आती
जो कहीं नहीं थे उन्हें
प्रकाशित होते देखता रहता है
अन्धकार के साम्राज्य में
क्या कुछ नहीं होता
कहने से क्या
करवट बदलते-बदलते
वह उठ बैठता है
सारी कुंठाओं को अपने दैवीय तेज से जलाकर
वह फिर निर्मल हो
सभी को सामने की ओर
से देख रहा होता है
उसे भी सब कुछ
भला ही लगता है
वह भी अनन्त समय से
यूं ही देखता आ रहा है
उपेक्षा और प्रेम दोनों
को समझते हुये
बिना बंटे आज तक आता रहा है
क्योंकि वह जानता है कि
उसके होने भर से ही बहुत कुछ नहीं होता है
और अब वह घृणा से नहीं
दया से भरने लगा है
पर रही तपिश की बात तो
वह उसका स्वभाव है
वह इस पर अडिग ही रहा है
इसलिए ही शायद
आज तक जीवित है
दुख होता है उसे
जब वह पाता है कि
किसी भी हृदय का अन्धकार
ला सकता है विध्वंस
तो अन्धकार को खत्म करने
की कोशिश में आता रहा है।
और शायद आता रहेगा
वाकी उसने क्या कुछ नहीं मरते देखा
क्या कुछ नहीं मिटते देखा।

देवदार का नन्हा पौधा

पर्वत के उच्च शिखर पर
प्रकृति की गति से
एक देवदार का बीज आ पड़ा.
मूसलाधार बरसात ने
उसे उतार दिया पर्वत की खोह में
या कहें हृदय में
उसके बाद प्रारम्भ हुआ
उस बीज का जीवन
एक ओर जीने की इच्छा
उठकर कुछ करने की उमंग
तो दूसरी ओर शिलाओं सी बाधाएं
वह जाने देने का निवेदन करता है
लेकिन कठोर पत्थर का हृदय है
वहां दया-धर्म कैसा?
फिर भी वह
धैर्य और साहस के साथ
बढ़ने का मन बनाता है
उसकी जीवंत और क्रियात्मक ऊर्जा
न जाने कब
पत्थरों के सीने चीरकर
ऊपर उठना प्रारम्भ कर देती है
अब वह नन्हा पौधा
नन्ही-नन्ही आँखों से
विराट संसार को निहारने लगता है
ऊपर से देखने पर संसार
कितना सुहावना लगता है
छोटे और बड़े दोनों में
कुछ विशेष अन्तर नहीं दिखता
पहाड़ो पर आने वाले वे सभी
जिनके और पर्वतों के बीच
खासी समानता है
जो संवेदनाओं की दुनिया से दूर
पर्वतों पर मोहित होकर आये हैं
उनसे वह कुछ सीखता समझता हुआ सा
विराट्ता, तटस्थता और चंचलता
के अनुभव करता हुआ
बढ़ता रहता है
जहां का तहां, किन्तु ऊपर
अब खाइयों के अंधकार में खड़े
नीचे से देखने पर
लम्बे लगने वाले वृक्षों की
नजर उस पर पड़ती है
ठीक से निहारने और परखने पर
वह उन्हें स्वयं के बराबर लगने लगता है
पर्वत की चोटी पर उपजा है न
पर पौधा अभी तक
किसी भी स्पर्धा का शिकार नही हुआ है
वह उन्हें सुबह-शाम
हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगता है
उसकी दृष्टि में उनका भी उतना ही सम्मान है
जितना उसका
क्योंकि वह भी तो ईश्वर की कृति है
फिर भी,
वह नजर में आ ही चुका है
अब उसके जीवन को पकड लेने
के प्रयत्न प्रारम्भ हो जाते हैं
उसका कद छोटा है
किन्तु अब वह औरों के कदों को
जानने का अवसर पाता है।
उसे अब हाथ बढ़ाकर छेड़ा जाने लगा है
सब कुछ चलता रहता है
और किशोरावस्था से पौधा
युवावस्था की ओर बढ़ता जाता है
वह अपने हाथ इधर-उधर नहीं फैलाता
बल्कि ऊपर की ओर, या कहें ईश्वर की ओर
हाथ जोड़कर बढ़ता रहता है
वह नीचे बढ़ना भी नहीं भूलता
जबकि उसके प्रतिद्वंदी अपनी आयु और
पत्तों की सम्पत्ति के विषय में समाज को जताते हुए
उसे निन्दित करते रहते हैं
वे कभी नहीं सोचते कि पर्वतों का सीना चीरकर
उगना सहज ही नहीं है
विरोध से अब वह और ऊर्जावान बनता है
स्वीकार करता है संसार की सारी चुनौतियां
अब स्वतः ही एक संकल्प
उसके अन्दर जन्म लेता है
एक प्रार्थना उठती है उसके हृदय से
कि अब वह भी इतना ऊँचा उठे कि
उसके हाथ परमात्मा के चरणों तक पंहुचें
और जड़े इन पर्वतों को चीरकर
धरती की गहराई तक
पर इस गति में भी बना रहे एक संतुलन
वह बढ़ेगा ही
चाहे कितना ही कठोर हो जीवन
साधुवाद आखिर विरोधी भी
मित्र ही सिद्ध हुए
जिन्होंने जीने का ढंग तो सिखाया
उसकी संभावनाओं का ज्ञान तो कराया.......

नदी




बर्फ के ठोस कतरे
स्वयं में संतुष्ट हो पड़े होते हैं
किन्तु जब उत्तप्त सूर्य
अपनी गर्म किरणें लेकर आता है
तो न चाहते हुए भी
बर्फ को पिघलना पड़ता है
यह पिघलना ही
प्रारम्भ होता है उसके जीवन का
जीवन गति का नाम है
सो वह चल पड़ता है
अपने स्वभाव के अनुसार
ढलान की ओर
अवरोधों से बचकर
धीरे-धीरे उसके साथ
कारवां बनने लगता है
वहीं स्वतंत्र सत्ता
और स्वामित्व का लोभ
कुछ जलकणों को खींच लेता है
तब निर्मिति होती है तालाब और डबरों की
किन्तु जो जुड़ते जाते हैं कारवां के साथ
विराट् उद्देश्य के लिए
जहां देने का नाम ही जीवन है
तो उसमें एक दिव्य प्रवाह जन्म लेता है
फिर सामने आने वाले अवरोध
कुछ खास नहीं कर पाते
बड़े-बड़े तने हुए शिलाखण्ड
टूटने लगते हैं
वेडौल होते हुए भी
नियति के अधीन उन्हें चलना होता है
तो वहीं कुछ ऐसे भी होते है
जो कुछ दूर चलकर
ले लेते हैं ओट
छिप जाते हैं कोनों में
चिपक जाते हैं भयवश शिलाओं से
किन्तु जो सौंप देते हैं स्वयं को
अज्ञात के हाथों में
वे नहीं रुकते, चलते जाते हैं
इस क्रम में वे औरों को भी तोड़ते हैं
और स्वयं भी टूटते हैं
उस प्रवाह के साथ चलने पर
उन्हें ईश्वर की सत्ता का ज्ञान होता है
फिर वे करते हैं प्रवाह के प्रति समर्पण
और यह समर्पण उनमें
प्राणों की प्रतिष्ठा करता है
वे बन जाते हैं सालिगराम
उनका महत्व देवतुल्य होता है
और स्थान देवालय
किन्तु नदी तो अपनी धुन में
श्रेय से बेखबर बढ़ती जाती है
उससे पोषण पाकर
खड़े होते हैं फलदार वृक्ष
तो साथ ही अपराधों के सहायक
झाड़ भी तन खड़े होते हैं
वह चलते-चलते
मुड़कर देखना भी नहीं चाहती
बहुत से कटु और सुखद अनुभवों को
स्वयं में समेटे हुए
वह अनन्त की ओर बढ़ती ही जाती है।
दूसरे के पापों का ढोना सहज ही नहीं है
इससे उसे पीड़ा होती है
तो पाप ढोने की पात्रता
उसे संतोष भीे देती है
खैर उसे इससे चैन नहींे मिलता
निंदा और प्रशंसा के
पार जाने की व्याकुलता में
निर्लिप्त, निस्वार्थ भाव से
बढ़ते जाना उसे विराट् बना देता है
और अन्त में उसे गिरना होता है
आंख बन्द कर अनन्त गहराई में
वह जब आंखें खोलती है तो पाती है
कि अब वह नदी नहीं
बल्कि समुद्र बन चुकी है
आत्मा का परमात्मा में विलय हो चुका है
अब वह पीछे छूट चुके
तालाबों और डबरों के प्रति
दया भाव से भर जाती है
किन्तु सभी को इतना नहीं मिलता
यह भाव ही उसे शांति देता है
अच्छा ही है कि वह शांत रहे
क्योंकि अब उसकी हल्की अशांति भी
कोई सुनामी ला सकती है।

न हो भय-भूख-भ्रष्टाचार मेरे देश म

न हो भय-भूख-भ्रष्टाचार मेरे देश में
बने सम्पन्न भारत सत्य के परिवेश मंें.

उठें सर निर्बलों के, निर्धनों की भूख मिट जाये,
शोषण की थमे रफ्तार मेरे देश में.

कुचल दंे अब तो सर उनका जो सदियों लूटते आये.
बचें हिंसक न अब मक्कार, मेरे देश में.

उठो बन्धू! हिला दो नींब अत्याचार शोषण की.
बढ़े सद्भाव-सद्आचार मेरे देश में.

नयी पीड़ी को भी पछुआ हवाओं से बचाना है.
हो इक आदर्श घर परिवार मेरे देश में.

सिंहासन पै जो बगुले हैं उन्हें अब तो भगाना है.
बने संतों की अब सरकार मेरे देश में

तू अंधेरी रात में अब चाँदनी की बात ना कर

तू अंधेरी रात में अब चाँदनी की बात ना कर,
यह शिकारी दौर है तू आदमी की बात ना कर.

उड़ रहे सब पंख खोले, आसमानी दौड़ में हैं.
चाहता जीना अगर तो, तू जमीं की बात ना कर.

हर तरफ रंगीनियां ही आँख में आती नजर हैं,
झांक उनमें देखले तू फिर नमी की बात ना कर.

वन्दनाऐं आज अच्छी कीमतों पर बिक रही हैं.
मोल अपना भी लगा, धन की कमी की बात ना कर.

संकुचित कुछ ताल भी तो गर्व से फूले हुए हैं.
दे उन्हें तू भी सलामी, पर नदी की बात ना कर.

कल दबाने को गला, कुछ हाथ भी तुझ तक बढ़ेंगे.
माँग फिर भी यह रहेगी, तू बदी की बात ना कर.

हर गली, हर मोड़ पर, अब मौत की चर्चा चलेगी.
मारना-मरना पड़ेगा, जिन्दगी की बात ना कर.

आदमी जिंन्दा है लेकिन आदमीयत खो गई है

आदमी जिंन्दा है लेकिन आदमीयत खो गई है .
हर हृदय पत्थर हुआ है चेतना सब सोे गई है .

लोग गर्दन काट कर भी ढूंढ़ते फिरते खुशी.
पाप की विषवेल लगता हर जगह पर बो गई है .

अब किसी की पीर की दिल में नदी बहती नहीं है.
भोग की गहरी घड़ी में, आत्मा भी सो गई है.

खोजना अब प्रीति आँखों में किसी के व्यर्थ होगा.
लौटकर आ ना सकेगी, दूर हमसे जो गईं है.

अब तड़पता दिल अंधेरे में यहाँ पर रोशनी का.
आह भर इन्सानियत भी आँसुओं से रो गई है.

ध्वज गुलामी का अभी लहरा हुआ ह

अब तो सच्ची बात पर पहरा हुआ है,
और सारा तन्त्र भी बहरा हुआ है.

ठोस हर कतरा, तरलता खो गई है,
है नदी बस नाम, जल ठहरा हुआ है.

इस प्रगति की गति, समझना भी कठिन है.
आदमी पागल है या गहरा हुआ है.

चोर कहना चोर को अपराध होगा.
ध्वज गुलामी का अभी लहरा हुआ है.

भेड़ियों को देखिए, सब एक-जुट हैं.
आदमी को देखिए, विखरा हुआ है.

चोट खाते रहे मुस्कराते रह

आस का हर दिया हम जलाते रहे।
चोट खाते रहे मुस्कराते रहे।।

जिसको अपना कहा हमने हर मोड़ पर।
वे खड़े दूर दामन बचाते रहे।

उम्र छोटी थी देखे बबंडर बड़े,
हम तो नादान थे पास जाते रहे।

भावनायें सदा से छली ही गईं,
हम नई भावनायें जगाते रहे।

जब से लगने लगा दुनिया बाजार है,
हम न बिक जायें खुद को बचाते रहे।

जिन्दगी जैसे नदिया की धारा बनी,
लोग आते रहे, और जाते रहे।

वो तो कांटे विछाया किये राह में,
राह में फूल उनकी सजाते रहे,

इतने लूटे गये मौन फिर भी रहे,
हम उन्हें फिर भी अपना बताते रहे।

मिट सके रात काली बढ़े रोशनी,
इसलिए हम स्वयं को जलाते रहे।