Wednesday, January 16, 2013

जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.

जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.
अब फिर से उठ रहीं हंै बगावत की आँधियाँ.
अब फिर से खून सस्ता है मंहगी हैं पोथियाँ.
लाशों को देख कर भी हृदय हेोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हैं शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
तस्वीर अपनी अब तो दर्पण में देखिए.
सीमाऐं अपनी पीछे के चित्रण में देखिए.
घातें न होतीं प्रेम रस जो घोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हंै शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
इनकी तो पहले क्या नहीं देखीं हैं बाजियाँ.
फूलों की टोकरी पै भी, फेकीं है वर्छियाँ.
अपराध फिर भी इनका कोई तौलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.
बक्तव्य राजनीति का दादुर की चीख है.
कायर पडे़ समाज को, बातों की भीख है.
संयम भी है कि आज तलक डोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हंै शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
वर्षों से चले आ रहे निन्दा के दौर हैं.
एड़ी से मसल देते हैं वे ‘कोई और’ हैं.
आतंक सदा ही तो खुला डोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
कहता हूँ पद्य में जो, तो कहते हो कवि है.
कहता हूँ गद्य, कहते हो नेता यह भी हैं.
मन किन्तु इशारों की तहें खोलता नहीं
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.

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