Wednesday, January 16, 2013

वेद और गीता के बल पर, भारत उन्नत करना होगा

फूल अभय के खिलें जगत में,
भय का भूत भगाओ मिलकर।
मिटे व्याप्त अंधियारा मन से,
ऐसे दीप जलाओ मिलकर।

ज्ञान-ज्योति से जीवन के सब,
गहरे तम भी मिट जाते हैं।
है ‘अज्ञानजनित जो पीड़ा,
उसके बन्धन कट जाते हैं।

किन्तु अहम् के झूठे मद से,
ज्ञानी अज्ञानी होता है।
सबको बहुत दिखाये तनकर,
किन्तु अकेले में रोता है।

ज्ञान शब्द से नहीं प्रयोजन,
विद्यालय के मैकाले से।
ज्ञान वड़ी अद्भुत प्रतीति है,
जो मिलता अन्दर वाले से।

ज्ञान वही जिससे अन्तरतम,
का वीणा झंकृत होता है।
उसको कैसे ज्ञान कहें हम,
जिससे मन विकृत होता है।

‘पूर्व’ ज्ञान का विपुल कोष था,
आदिकाल से ग्रन्थ बताते।
जो असभ्य थे पश्चिम वाले,
वे अब हमको ज्ञान जताते।

इसका कारण मात्र यही है,
हम अपना सब छोड़ रहे हैं।
भूल निजी गरिमा गौरव को,
पागलपन में दौड़ रहे हैं।

कुछ धृतराष्ट्र सभी गांधारी,
सोच लिया है सब अन्धे हैं।
पश्चिम का मुंह ताक रहे हैं,
ज्ञानी यीशू के बन्दे हैं।

जिसने ज्योति विश्व को दी है,
आज तरसता है ज्योती को।
स्वावलम्ब, निज खोजें छोड़ीं,
कल को तरसेगा रोटी को।

वहुत हो चुका पागलपन यह,
अब तो शुद्ध करो सब मन को।
अपना ज्ञान बढ़ाता धन को,
पर का ज्ञान मिटाता जन को।

उनकी क्षमताओं के बल पर,
नहीं विश्व से डरना होगा।
वेद और गीता के बल पर,
भारत उन्नत करना होगा।

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