Wednesday, January 16, 2013

आज खुद से पूंछता हूं, कौन हूं मैं? कौन हूं मैं?

आज खुद से पूंछता हूं, कौन हूं मैं? कौन हूं मैं?
पा सका उत्तरनहीं तो मौन हूँ मैं मौं हूँ मैं।
आ गिरा हूं आज जैसे, स्वप्न की अट्टालिका से।
इसलिए ही बह रहा है काव्य कोई तूलिका से।
आज मुझको स्वप्न के इन झंझटो से मुक्त कर दे।
चाहता है क्या प्रभू तू?आज कुछ तो व्यक्त कर दे।
अब हुई पर्याप्त पीड़ा, बिन विरामों के हे स्वामी।
भेजता है तू जिधर भी, उस तरफ होती है बामी।
भेजता पर पीर हरने, दे निरन्तर पीर मुझको।
मैं निकालूं जिनके कण्टक, वे चुभाऐं तीर मुझको।
ये व्यवस्था भी तेरी प्रभु, रास कुछ आती नहीं है।
खींचता है प्राण तू फिर, जान क्यों जाती नहीं है।
खेल भी तेरी तरह हर, कोई मुझसे हंस के खेले।
और पीड़ा इस हृदय की, ये कभी मुंह से न बोले।
राजपथ की राह पर, जाऊं बिना संसाधनों के।
तो मुझे अब मुक्त कर दे, मोह के तुछ बन्धनों से।
प्रेम की जब राह भेजे, दे घृणा के पुट बिषैले।
प्रेम पर वक्तव्य देते, आदमी कितने कषैले।
जब जिसे चाहे उठा दे, जब जिसे चाहे विठा दे।
तू मेरी इस जिन्दगी का, आज तो पर्दा उठा दे।
या मुझे कुछ कर व्यवस्थित, या मुझे जग से अलग कर।
या घृणा में भेज दे तू, हृदय को मुझसे बिलग कर।
काम क्या इस जग में मेरा, तू मुझे अब बोल दे सब।
कौन हूं मैं ?कौन हूं मैं? आज सब कुछ खोल दे अब।

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