Friday, January 11, 2013

मुक्तक-तिरंगा गाढ़कर तन में वतन का ऋण चुकाया है

भलाई रास्ता वो जो शिखर के पार जाता है
जमाना भी उसे ना रोक पाता हार जाता है
संभलना तू पथिक चलना अकेले भी यहां होगा
वही एक साथ में होगा नहीं संसार जाता है।

जवानी नाम उसका जो वतन के काम आती है
जवानी वो नहीं जो दूध माता का लजाती है
जरा दिल थामकर सुनना वतन तुमको बुलाता है
उठो, जूझो यही माटी से बस आवाज आती है

हैं हम भारत की वो सन्तान जिसने खंू बहाया है
नहीं हमने कभी माँ भारती का सर झुकाया है
हमारी राष्ट्रभक्ति को कभी गाली नहीं देना
तिरंगा गाढ़कर तन में वतन का ऋण चुकाया है

सिंहासन लोलुपों को आदमी की पीर भाती है
नजर इनको नहीं इस देश की तस्वीर आती है
जरा सोचो किन्हें तुम देश की पतवार देते हो
अनाड़ी नाविकों से नाव अक्सर डूब जाती है

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