Friday, January 11, 2013

कौन इस विकास में जिया है और मरा,

कौन इस विकास में जिया है और मरा,
बहुत हो चुका है अब तो साचिए जरा.

इतराइये न आप कंगूरे पै बैठकर,
उसका भी कुछ खयाल जो बुनियाद में भरा.


गांधी, सुभाष का ये चमन सूख रहा है,
चश्मा चढ़ा लिया है उससे दीखता हरा.

तुम पर विमान, हम बेमान कुछ तो राज है,
वैसे सभी को एक सा देती है यह धरा.

चूल्हे में नहीं आग जिनके दिल में आग है,
बचियेगा उनसे फोड़ न दें पाप का घड़ा.

कैसे भला अब देश को चुप रख सकेंगे आप,
वह माल लाइये जो विदेशों में है भरा.

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