Wednesday, January 16, 2013

संक्रमण के काल में भारत दिखाई दे रहा है

हर कदम पर अड़चनों का जाल बढ़ता जा रहा है।
जिन्दगी की दोपहर का सूर्य चढ़ता जा रहा है।

कल्पनाओें में भले ही मिल सके छाया घनेरी।
और कुछ इससे अधिक ना आस ही बाकी है मेरी।

टूटती है मोह-माया, छूटते जाते हैं बन्धन।
हाट में ऐसी खड़ा हूं मोल के लगते है तन-मन।

और करुणा के समन्दर की हिलोरें बढ़ रही हैं।
कुछ मिटाने, कुछ बनाने की कहानी गढ़ रही हैं।


और जैसे दूर मंजिल, कृश पथिक हो, पथ कठिन हो।
साथ ही विकलांग काया फिर भी चलना रात-दिन हो।

क्या कोई इस श्वांसक्रम में अपनी मंजिल पा सकेगा।
लक्ष्य जो दृढ़निश्चयी है क्या वहां तक जा सकेगा।

भोग का है बोलबाला, त्याग है मंची कहानी।
पहनेर नित नव मुखोटे, चल रहे चालेें सयानी।

मांस के टुकड़ों पै जैसे स्वान भूखे टूटते हैं।
लोग वैसे पद प्रतिष्ठा पा खजाना लूटते हैं।

और फिर धन से सबल हो, दूर करना चाहें डर को।
वैभवी दम पर कुचल देते हैं वे प्रतिभा के सर को।

संक्रमण के काल में भारत दिखाई दे रहा है।
चोट अपने दे रहे आरत दिखाई दे रहा है।

राम की आदर्श भू पर बढ़ रहे लंकेेश नितदिन।
हैं निशाचर संगठन में मान-धन लुटता है प्रतिदिन।

राष्ट्र-द्रोही शक्तियां फिर फन फुलाकर बढ़ रही हैं।
राष्ट्र के फिर-फिर विभाजन की कहानी गढ़ रही हैं।

जो कथित हैं राष्ट्रवादी वे लगे बाजीगरी में।
राष्ट्र-मर्यादा भुला दी वोट की सौदागरी में।

इसलिए ही हो व्यथ्ति मैं खोजता हूं सज्जनों को।
आवरण से मुक्त चेहरे, सत्यनिष्ठा, सद्जनों को।

हो न कोई मेरा अनुचर, सब विचारों के हों साथी।
उनको आकर्षित करें ना फूल, पंजा और हाथी।

ओर बन कर एक शक्ति वे जगाएं सुप्तजन को।
फिर से मिलकर सींच डालें सूखते जाते चमन को।

चल रही थी कुछ बरस से धार अब रुक सी रही है।
मात्र धन-दौलत के युग में क्षमता कुछ चुक सी रही है।

हैं जो रिश्ते नाते तन के वे निभाने ही पड़ेंगे।
हैं जा ऋण गत् जन्म के वे सब चुकाने ही पड़ेंगे।

अंततः यह याचना ना स्वर्ण मंडित नाम आए।
राष्ट्र के उत्थान पथ पर मेरी काया काम आए।

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