जिस कारण जीवन का स्वाद कसैला होता।
जिसके दम पर अमृत पान बिषैला होता।
किन्तु नहीं हूं झूठ, अमिट हूं, अटल सत्य हूं।
नहीं कल्पना कवि की सबसे बड़ा तथ्य हूं।
क्या तुम मुझको नहीं अभी पहचान सके हो।
यही मुझे अफसोस नही क्यों जान सके हो।
वही मृत्यु जो नये जन्म से पूर्व मिली थी।
तुम जब-जब थे बढ़े तुम्हारे साथ चली थी।
मेरे अनुभव का न यहां कोई सानी है।
मैं जीवनदात्री न कोई मुझसा दानी है।
किन्तु युगों से देख रही हूं मैं सृष्टि को।
नहीं जान पाई फिर भी मानव दृष्टि को।
धन संग्रह में लगे हुये मोटे सेठों को।
रक्त चूस कर भरे हुये मोटे पेटों को।
उचित समय पहचान उठाया मैंने उनको।
उसी समय बस प्यारे ने पहचाना मुझको।
बोला-छोड़ मुझे पापिन मैं जी न सका हूं।
जीवन का रस कभी चैन से पी न सका हूं
मैंने तो आनंद सदा ढूंढ़ा था धन में।
इसीलिये ना मिली तृृप्ति मुझकांे जीवन में।
एक बार जब मैंने एक उठाया नेता।
मेरी सूरत देख एकदम से वह चेता।
मुझसे बोला मुझे अभी मंत्री बनना है।
जो मेरा आधार अभी उन पर तनना है।
अरे डंकिनी तुझे जरा भी शर्म न आती।
लगा पदों की दौड़ मुझे क्यों है ले जाती।
योगी और मनीषी ही मुझको समझे हैं।
जब भी होता तेल खत्म तब दीप बुझे हैं।
जो प्रकाश देते हैं जग को अंधियारे में।
जो दीप जला करतेे तम के गलियारे में।
उन्हें प्रभू के चरणों में अर्पित करती हूं।
पाकर प्रभु आशीष हृदय गर्वित करती हूं।
परहित जीने वाले ही मुझको रुचते हैं।
और स्वार्थी भी मेरा क्या ले लेते हैं।
परहित जीने वाला रहता है तृप्ति में।
और अंत पर प्राण चले जाते मुक्ति में।
जिसको पीड़ा प्यारी वो क्या मेरी माने।
कंकड़ पत्थर संग्रह में ही जीवन जाने।
मेरे भय से सत्य नहीं कहते बनता है।
स्वाभिमान खोकर वो अपमानी बनता है।
किन्तु बता दूं मैं न आत्मा को हनती हूं।
देह बदलकर सृष्टिक्रम जारी रखती हूं।
उठा रही सदियों से दुष्ट और महान को।
एक भाव से देख रही बूढ़े जवान को।
छोड़ो मुझसे डरना तनकर जीवन जीओ।
स्वाभिमान से रहो तनिक भी गरल न पीओ।
नहीं आज तक कोई अमर बना है भय से।
अमर वही जो जीवन जीता सदा अभय से।
यह है अंतिम सत्य शरीरों को मरना है।
सौ-सौ जीवन जिओ नहीं मुझसे डरना है।
जिसके दम पर अमृत पान बिषैला होता।
किन्तु नहीं हूं झूठ, अमिट हूं, अटल सत्य हूं।
नहीं कल्पना कवि की सबसे बड़ा तथ्य हूं।
क्या तुम मुझको नहीं अभी पहचान सके हो।
यही मुझे अफसोस नही क्यों जान सके हो।
वही मृत्यु जो नये जन्म से पूर्व मिली थी।
तुम जब-जब थे बढ़े तुम्हारे साथ चली थी।
मेरे अनुभव का न यहां कोई सानी है।
मैं जीवनदात्री न कोई मुझसा दानी है।
किन्तु युगों से देख रही हूं मैं सृष्टि को।
नहीं जान पाई फिर भी मानव दृष्टि को।
धन संग्रह में लगे हुये मोटे सेठों को।
रक्त चूस कर भरे हुये मोटे पेटों को।
उचित समय पहचान उठाया मैंने उनको।
उसी समय बस प्यारे ने पहचाना मुझको।
बोला-छोड़ मुझे पापिन मैं जी न सका हूं।
जीवन का रस कभी चैन से पी न सका हूं
मैंने तो आनंद सदा ढूंढ़ा था धन में।
इसीलिये ना मिली तृृप्ति मुझकांे जीवन में।
एक बार जब मैंने एक उठाया नेता।
मेरी सूरत देख एकदम से वह चेता।
मुझसे बोला मुझे अभी मंत्री बनना है।
जो मेरा आधार अभी उन पर तनना है।
अरे डंकिनी तुझे जरा भी शर्म न आती।
लगा पदों की दौड़ मुझे क्यों है ले जाती।
योगी और मनीषी ही मुझको समझे हैं।
जब भी होता तेल खत्म तब दीप बुझे हैं।
जो प्रकाश देते हैं जग को अंधियारे में।
जो दीप जला करतेे तम के गलियारे में।
उन्हें प्रभू के चरणों में अर्पित करती हूं।
पाकर प्रभु आशीष हृदय गर्वित करती हूं।
परहित जीने वाले ही मुझको रुचते हैं।
और स्वार्थी भी मेरा क्या ले लेते हैं।
परहित जीने वाला रहता है तृप्ति में।
और अंत पर प्राण चले जाते मुक्ति में।
जिसको पीड़ा प्यारी वो क्या मेरी माने।
कंकड़ पत्थर संग्रह में ही जीवन जाने।
मेरे भय से सत्य नहीं कहते बनता है।
स्वाभिमान खोकर वो अपमानी बनता है।
किन्तु बता दूं मैं न आत्मा को हनती हूं।
देह बदलकर सृष्टिक्रम जारी रखती हूं।
उठा रही सदियों से दुष्ट और महान को।
एक भाव से देख रही बूढ़े जवान को।
छोड़ो मुझसे डरना तनकर जीवन जीओ।
स्वाभिमान से रहो तनिक भी गरल न पीओ।
नहीं आज तक कोई अमर बना है भय से।
अमर वही जो जीवन जीता सदा अभय से।
यह है अंतिम सत्य शरीरों को मरना है।
सौ-सौ जीवन जिओ नहीं मुझसे डरना है।
No comments:
Post a Comment