आदमी की तृप्ति-‘‘नोटों का बिछोंना हो गई है.
लग रहा है ‘‘हर सुनहरी चीज’’ सोना हो गई.
हो गया विक्षिप्त मानव
अब स्वयं से दूर रहकर.
रह गया है मात्र मलवा-
बच गया जो महल ढहकर.
भौतिकी परिवेश में अब
खो गई हंै भावनाऐं.
स्वार्थ अग्नि में झुलस कर
रह गईं संवेदनाऐं.
सतपथी की जिंदगी तो मात्र रोना हो गई.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
‘प्रेम’ जैसे शब्दतल पर
वासनाओं के समन्दर.
पाशविकता आचरण में
कल्पनाओं में है मन्दर.
आधुनिक फिल्मी तरज पर
चल रही सारी कहानी.
अरुव्यसन की पूर्ति में ही
देश की गलती जवानी.
भीड़ ऐसी माँ मही को भार ढोना हो गई है.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
हर नगर और गाँव में
प्रति वर्ष हरि लीला का मंचन.
देखने में धर्म पर है
वास्तविक जनता का वंचन.
आध्यात्म चर्चा आड़ में
है कर रहे मोटी कमाई.
गर करें तुलना तो इनसे
लाख अच्छे हैं कसाई.
खेलते जी भर सभी जनता खिलौना हो गई है.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
देेश आहत भूख से है,
और फिर आतंक छाया.
लाल-नीली बत्तियाँ ले
लूटते जी भर के माया.
आड़ में श्वेताम्बरों की
हो रहे कितने घुटाले.
चाहे फिर स्विस बैंक के
खुल ना सकें मजबूत ताले.
उच्च दर्शन देश का पर सोच बौना हो गई है.
लग रहा है हर सुनहरी चीज सोना हो गई है.
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