Saturday, January 12, 2013

देवदार का नन्हा पौधा

पर्वत के उच्च शिखर पर
प्रकृति की गति से
एक देवदार का बीज आ पड़ा.
मूसलाधार बरसात ने
उसे उतार दिया पर्वत की खोह में
या कहें हृदय में
उसके बाद प्रारम्भ हुआ
उस बीज का जीवन
एक ओर जीने की इच्छा
उठकर कुछ करने की उमंग
तो दूसरी ओर शिलाओं सी बाधाएं
वह जाने देने का निवेदन करता है
लेकिन कठोर पत्थर का हृदय है
वहां दया-धर्म कैसा?
फिर भी वह
धैर्य और साहस के साथ
बढ़ने का मन बनाता है
उसकी जीवंत और क्रियात्मक ऊर्जा
न जाने कब
पत्थरों के सीने चीरकर
ऊपर उठना प्रारम्भ कर देती है
अब वह नन्हा पौधा
नन्ही-नन्ही आँखों से
विराट संसार को निहारने लगता है
ऊपर से देखने पर संसार
कितना सुहावना लगता है
छोटे और बड़े दोनों में
कुछ विशेष अन्तर नहीं दिखता
पहाड़ो पर आने वाले वे सभी
जिनके और पर्वतों के बीच
खासी समानता है
जो संवेदनाओं की दुनिया से दूर
पर्वतों पर मोहित होकर आये हैं
उनसे वह कुछ सीखता समझता हुआ सा
विराट्ता, तटस्थता और चंचलता
के अनुभव करता हुआ
बढ़ता रहता है
जहां का तहां, किन्तु ऊपर
अब खाइयों के अंधकार में खड़े
नीचे से देखने पर
लम्बे लगने वाले वृक्षों की
नजर उस पर पड़ती है
ठीक से निहारने और परखने पर
वह उन्हें स्वयं के बराबर लगने लगता है
पर्वत की चोटी पर उपजा है न
पर पौधा अभी तक
किसी भी स्पर्धा का शिकार नही हुआ है
वह उन्हें सुबह-शाम
हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगता है
उसकी दृष्टि में उनका भी उतना ही सम्मान है
जितना उसका
क्योंकि वह भी तो ईश्वर की कृति है
फिर भी,
वह नजर में आ ही चुका है
अब उसके जीवन को पकड लेने
के प्रयत्न प्रारम्भ हो जाते हैं
उसका कद छोटा है
किन्तु अब वह औरों के कदों को
जानने का अवसर पाता है।
उसे अब हाथ बढ़ाकर छेड़ा जाने लगा है
सब कुछ चलता रहता है
और किशोरावस्था से पौधा
युवावस्था की ओर बढ़ता जाता है
वह अपने हाथ इधर-उधर नहीं फैलाता
बल्कि ऊपर की ओर, या कहें ईश्वर की ओर
हाथ जोड़कर बढ़ता रहता है
वह नीचे बढ़ना भी नहीं भूलता
जबकि उसके प्रतिद्वंदी अपनी आयु और
पत्तों की सम्पत्ति के विषय में समाज को जताते हुए
उसे निन्दित करते रहते हैं
वे कभी नहीं सोचते कि पर्वतों का सीना चीरकर
उगना सहज ही नहीं है
विरोध से अब वह और ऊर्जावान बनता है
स्वीकार करता है संसार की सारी चुनौतियां
अब स्वतः ही एक संकल्प
उसके अन्दर जन्म लेता है
एक प्रार्थना उठती है उसके हृदय से
कि अब वह भी इतना ऊँचा उठे कि
उसके हाथ परमात्मा के चरणों तक पंहुचें
और जड़े इन पर्वतों को चीरकर
धरती की गहराई तक
पर इस गति में भी बना रहे एक संतुलन
वह बढ़ेगा ही
चाहे कितना ही कठोर हो जीवन
साधुवाद आखिर विरोधी भी
मित्र ही सिद्ध हुए
जिन्होंने जीने का ढंग तो सिखाया
उसकी संभावनाओं का ज्ञान तो कराया.......

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