Saturday, January 12, 2013

चोट खाते रहे मुस्कराते रह

आस का हर दिया हम जलाते रहे।
चोट खाते रहे मुस्कराते रहे।।

जिसको अपना कहा हमने हर मोड़ पर।
वे खड़े दूर दामन बचाते रहे।

उम्र छोटी थी देखे बबंडर बड़े,
हम तो नादान थे पास जाते रहे।

भावनायें सदा से छली ही गईं,
हम नई भावनायें जगाते रहे।

जब से लगने लगा दुनिया बाजार है,
हम न बिक जायें खुद को बचाते रहे।

जिन्दगी जैसे नदिया की धारा बनी,
लोग आते रहे, और जाते रहे।

वो तो कांटे विछाया किये राह में,
राह में फूल उनकी सजाते रहे,

इतने लूटे गये मौन फिर भी रहे,
हम उन्हें फिर भी अपना बताते रहे।

मिट सके रात काली बढ़े रोशनी,
इसलिए हम स्वयं को जलाते रहे।

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