Saturday, January 12, 2013

संयुक्त परिवार

बसुधा को परिवार बताने वाले फूट रहे हैं,
ईश्वर हाथों बंधे नेह के बन्धन टूट रहे हैं।
भोग-भावना कहें याकि ईश्वर का कोप कहें हम,
विकृत भारत कहें याकि आधा यूरोप कहें हम।
जो सींचे नौमाह रक्त से उसको छोड़ रहे हैं,
जिसने स्वेद बहाकर पाला, नाता तोड़ रहे हैं।
जो भूखे भी रहें किन्तु हमको भरपेट खिलाते,
और अंत हो विवश स्वयं ही वृद्धालय को जाते।
धन दौलत की भोग-भावना और गिरा देती है,
तुच्छ सुखों की दौड़ बन्धु से दूर करा देती है।
इस कुत्सित वृत्ति पर हमको चिन्तन करना होगा।
क्यों इतना गिरते जाते यह मन्थन करना होगा।
क्यों ना भारत को फिर से इसकी सीमा में लायें,
प्रेमपूर्ण हम एक रहें भले ही आधी रोटी खायें।
और रखे हम ध्यान कहीं सुख का आधार नहीं है।
वहां धर्म भी नहीं जहां साझा परिवार नहीं है।
देवभूमि भारत को फिर उसके स्वरूप में लायें।
एक बनें और नेक बनें साझा परिवार बसायें।

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