Saturday, January 12, 2013

कोई कब तक सहेगा, और चुप भी रहेगा.

भाग्य के बल पर भला कब तक रहेगा ?.
वो जहर धीमा भला कब तक सहेगा ?.
विचारो ! लूट के इस खेल में संलिप्त बंधू.
कोई कब तक सहेगा ? और चुप भी रहेगा.
आजादी का लाभ सिर्फ तुमने पाया है.
उसके श्रम का माल तुम्ही ने तो खाया है.
जिस खूँ पर आजादी की आधार शिला है.
छः दशकों में उसको कुछ भी नहीं मिला है.
संतुष्टि का उच्च महल क्या नहीं ढहेगा ?.
कोई कब तक सहेगा? और चुप भी रहेगा ?.
तुम्हारे सूट मंहगे हैं, तुम्हारी साड़ियाँ मंहगी.
तुम्हारे श्वान मंहगे हैं, तुम्हारी गाड़ियाँ मंहगी.
लगता वो दिवस-रैना, उदर की आग मिट जाये.
समझता भार जीवन को कि कैसे भी ये कट जाये.
न तुमने मोल उसके स्वेद-बिंदू का कभी समझा.
मशीनों की तरह खेले न तुमने आदमी समझा.
सजा लो खूब सोना, किन्तु फिर भी यह लुटेगा.
कोई कब तक सहेगा, और चुप भी रहेगा.

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