Saturday, January 12, 2013

‘‘प्रेम’’

‘‘प्रेम’’ एक शब्द
ब्रह्म का स्वरूप
किन्त आज इतना विद्रूप।
आज जिसको भी देखो
वही प्रेम किये जा रहा है.
आखों से मरा सा प्रतीत होता है
फिर भी जिये जा रहा है.
वासनाओं के महल पर
ईंटें चढ़ा रहा है.
कोई पूंछे तो कहता है,
प्यार की पींगें बढ़ा रहा है.
अरे क्या है इसका मर्म
क्या है प्रेम का धर्म
प्रेम कोई खेल तो नहीं है.
फिर क्यों होते हैं बलात्त्कार.
पतियों द्वारा पत्नी पर अत्याचार,
क्यों होता है प्रेम के नाम पर शोषण.
कैसे कर लेते हैं स्वार्थों को पोषण.
इसे देखना होगा हमें जागकर,
कुछ भी नहीं कर सकेंगे
हम इससे भागकर.
जब कोई प्रेम में बढ़ रहा है
फिर क्यों ये सारा विश्व सड़ रहा है.
क्यों गिरता जाता है समाज
क्यों नहीं बच पा रहा चरित्र आज
क्यों होते हैं लगातार विस्फोट
पड़ती है किसी न किसी हृदय पर चोट.
क्यों होते हैं बच्चे अनाथ?
क्यों छूट जाता है उनके
परिवार का साथ?.
बस! यही आकर मन कहता है
सब कुछ अच्छा नहीं है
वाणी में ही है प्रेम हृदय सच्चा नहीं है.
लगता है यह अपने-अपने दर्शन का भेद है
ईश्वर प्रदत्त सहज व्यवस्था में छेद है?
यह आज हो गया है मुहब्बत का पर्याय
बस इसीलिए कुकृत्य ही हो गया है अभिप्र्राय
या फिर लव बन गया है.
विदेशी कीचड़ में सन गया है.
सुगन्ध के स्थान पर आती है दुर्गन्ध.
सात जन्मों का बन्धन भी बन गया अनुबन्ध.
प्रेम की पावनता की आड़ में
अपने दुव्र्यसनों को छिपाया जाता है.
प्रेम के वैराट्य को संकीर्ण कर
तुच्छ स्वार्थों में लगाया जाता है
सृजन का महान बिन्दु आज
अस्तित्व रक्षा को तरस रहा है.
इसके सर पर विध्वंस का
महाघन बरस रहा है.
और भी बहुत कुछ ऐसा चल रहा है,
जिसके आगे फीकी है राम
की रामायण, कृष्ण की गीता.
लुप्त ही न हो जाये कृष्ण की राधिका
राम की सीता.
मुहब्बत और लव मिलकर
न चाट जायें संस्कृति और देश.
खो ही न जाय कहीं प्रेम भरा
बुद्ध का संदेश.
भावनाओं का अदृश्य वेग
दृश्य में व्यक्त करने का प्रयास जारी है
धीरे-धीरे सब कुछ लील
जाने की तैयारी है.

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