Saturday, January 12, 2013

अधर्म के प्रति सूर्य का आक्रोश

सूर्य उगता है अनन्त से
पहले जब वह होता है अबोध
जगत की गति से अन्जान
निर्मल होती है उसकी छटा
होता है उसका महत्व
शुभ होता है उसका दर्शन
लुटाता है जीवन ।
अन्धकार भी दम तोड चुका होता है
हम आंखे मिलाकर करते है उससे संवाद
वह भी हमें सामने से देख रहा होता है
उस समय हमारी परछांई
हमसे भी बहुत लम्बी होती है
फिर प्रकृति की गति से
वह भी समय की सारणी में बद्ध
बढता है विवश
क्या करे, उसे भी तो एक उम्र मिली है
तो फिर वह चलता है
ऊपर की ओर
पानी होता तो नीचे की ओर जाता
आग है बढता है ऊपर
और ऊपर
और अब पाता है कि बौने हैं वे लोग
जिन्हें उसने सामने से देखा है
झूठा है समाज
चाल है सब
जब वह होता है जवान
सब समझ जाता है
इससे, उसका रोष भी
उसके साथ ही बढता है
इसलिए और जलता है
फिर कोई उससे नजर नही मिलाता
सभी खोजते है छांव
बचते है उससे
वह भी अपने धर्म में बद्ध
कर्तव्य के अधीन
चलता रहता है
और उसके साथ ही चलते हैं हम
और जब वह
पाता है कि
सब माया है, प्रपंच है, छलावा है
तो हताश भी होेता
और धीरे-धीरे मुक्ति
की ओर बढ़ने की सोच
जन्म लेती है
फिर तपिश भी होने
लगती है शान्त
लोग जुटने लगते है खुले में
और लगता है कि खुश हैं
तो वह भी खुश होता है
सोचता है वह-
पहले गलत था क्या?
पर नहीं वह तो अधर्म के
प्रति आक्रोश था
और जब जान ही जाता है
संसार का सार,
अधर्म की महिमा को समझ जाता है
समझ जाता है धर्मधारियों का पाखण्ड
जब पूरे दिन का क्षोभ, पीड़ा और दर्दउसे मथते हैं
तो वह सोचता है क्या करेगा कल
वह न जाने का मन बनाता है
मानो विरक्त सा हो जाता है
दूर-क्षितिज के पार
घोर अंधकार में,
हिमालय की कंदराओं में
बैठ कर ध्यान मग्न होने का करता है प्रयास
लेना चाहता है प्रचलित सन्यास
बस तभी, होता है एक अट्टाहास
उसके आस-पास
वह समझ जाता है
प्रेरणाओं की तरंगे
उसे घेरने लगती हैं
और वह फिर से जाने; कुछ देने
और जलने की ऊर्जा जुटाता है
पर उसे रात को नींद नही आती
जो कहीं नहीं थे उन्हें
प्रकाशित होते देखता रहता है
अन्धकार के साम्राज्य में
क्या कुछ नहीं होता
कहने से क्या
करवट बदलते-बदलते
वह उठ बैठता है
सारी कुंठाओं को अपने दैवीय तेज से जलाकर
वह फिर निर्मल हो
सभी को सामने की ओर
से देख रहा होता है
उसे भी सब कुछ
भला ही लगता है
वह भी अनन्त समय से
यूं ही देखता आ रहा है
उपेक्षा और प्रेम दोनों
को समझते हुये
बिना बंटे आज तक आता रहा है
क्योंकि वह जानता है कि
उसके होने भर से ही बहुत कुछ नहीं होता है
और अब वह घृणा से नहीं
दया से भरने लगा है
पर रही तपिश की बात तो
वह उसका स्वभाव है
वह इस पर अडिग ही रहा है
इसलिए ही शायद
आज तक जीवित है
दुख होता है उसे
जब वह पाता है कि
किसी भी हृदय का अन्धकार
ला सकता है विध्वंस
तो अन्धकार को खत्म करने
की कोशिश में आता रहा है।
और शायद आता रहेगा
वाकी उसने क्या कुछ नहीं मरते देखा
क्या कुछ नहीं मिटते देखा।

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