Thursday, June 21, 2018

सजल

सुख कल्पित हैं, आशा में भरमाते हैं
दुख सच्चे साथी हैं, आते-जाते हैं

नश्वर जग में सार नहीं मिल पाता है
हरदम उलझी गुत्थी को सुलझाते हैं

रोटी, कपड़ा, छत का उसका सपना है
मतलबखोर उसे अक्सर बहलाते हैं

जान सत्य को वो तो मौन साध बैठे
पागल ही अब पागल को समझाते हैं

दंश दिए हैं उसने, कमी नहीं छोड़ी
फिर भी वे हमको अपना बतलाते हैं

Thursday, January 24, 2013

अभी स्वप्न धूमिल हैं..मुखपृष्ठ


स्व.पिताजी को सादर समर्पित




पुस्तक समर्पण

परम्पिता परमात्मा को, जिसने हृदय को संवेदनशील
बनाये रखने के लिए पीड़ाओं के वातावरण का निर्माण किया।

उन समस्त विभूतियों को जो आदि से अनादि तक
राष्ट्र-धर्म के पथ पर बलिदान हुईं व होंगी।

उन सभी व्यक्तियों व परिस्थितियों को जिन्होंने
संघर्ष कर जीने की प्रेरणा प्रदान की।

समीक्षात्मक टिप्पणी-ब्रजराज सिंह तोमर, आजाद नगर, हरदोई

कविता आत्मा की वाणी है। आत्मा चूकि परमात्मा का अंश है अतः इसकी वाणी शाश्वत होती है, उसका प्रभाव अमोघ होता है। इसी अमोघ प्रभाव के बल पर कवि अपने शब्दांकुश से काल-गपंद की चाल को नियंत्रित कर सकता है। वाणी की इसी शक्ति के प्रयोग से रत्नावली ने तुलसी की, विद्योत्रमा ने कालिदास की और रंगरेजिन ने आलम की जीवन धारा मोड़ दी थी। इसी शक्ति के बल पर प्रवीन राम के एक दोहे ने उसे अकबर के कामुक-चुंगल से मुक्त करा लिया था गंग के एक छप्पय ने अकबर से गोवध पर प्रतिबंध लगवा दिया था। बिहारी के एक दोहे ने राजा जय सिंह का दिमाग दुरुस्त कर दिया था और भूषण ने शिवाजी और छत्रसाल को अपनी पालकी में कंधा लगाने हेतु बाध्य कर दिया था। काव्य-शक्ति के ऐसे ही और भी अनेक उदाहरण खोजे से मिल सकते हैं।
    कविता की इसी शक्ति से अभिभूत होकर श्री विवेकशील राघव जी ने उसके स्नेहांचल की शरण ग्रहण की। यद्यपि कविता और साहित्य के संस्कार उनमें जन्मजात रहे; किन्तु वे शब्दायित होने के लिए उचित अवसर की तलाश में रहे। इधर युवावस्था की तेजस्विता, ओजस्विता और मनस्विता ने इनके हृदय में एक आग सी उत्पन्न कर दी और-
    अंतर में जब आग जलेगी, कलम रोशनी तब उगलेगी
यह ध्रुव सत्य है। राघवजी के हृदय की आग कुछ कर गुुजरने की कुछ कर दिखाने की उत्कटता के रूप में सामने आई। जैसे काष्ठ मंे ज्वलनशीलता के समस्त तत्व विद्यमान रहते हैं केवल लौ छुआने भर की देर होती है उसी प्रकार विवेकशील के हृदय में स्थित ज्वल्यता को कवितायत करने के लिए कुछ प्रेरणाऐं अपेक्षित थीं। वे प्रेरणाऐं भी उन्हें सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक विडम्बनाओं और प्रशासनिक विद्रूपताओं आदि से मिलने लगीं। निरंतर गिरता हुआ राजनीतिक स्तर, मूल्यों का क्षरण, स्वार्थपरता, पदलोलुपता, धींगामुश्ती, भ्रष्टाचार ने राघवजी के हृदय को मथकर रख दिया। फलतः उनके भाव सहज रूप में कविता का रूप ग्रहण करने लगे और इन्हीं कविताओं का संकलन ‘अभी स्वप्न धूमिल हैं’ के रूप में हम सभी के समक्ष प्रस्तुत है।
    पुस्तक के नाम से ही कवि के हृदय की आग को महसूस किया जा सकता है क्योंकि जिस रूप में कवि समाज और राष्ट्र को व्यवस्थित देखना चाहता है वैसा उसे दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा। भूतकाल में हम विधर्मी और विदेशी शक्तियों से पराभूत और प्रताडि़त होते रहे और जब लंबे संघर्ष के बाद देश स्वतंत्र हुआ तो उसे विभाजन का दंश झेलना पड़ा। कश्मीर समस्या शिरो-शूल बनकर व्यथित कर रही है। आतंकवाद, माओवाद, जातिवाद, महार्घता, नौकरशाही, कालाधन, रिश्वतखोरी आदि कुछ एसी विकट समस्याऐं हैं जिनसे राष्ट्र निरंतर जूझता आ रहा है और इस जूझ का अंत होता दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। यह आक्रोश कवि की रचनाओं में भी प्रतिबिंबित होता दिखाई पड़ रहा है।
    उक्त आक्रोश से उद्वेलित होकर कवि ने भारतदर्शन, जाग उठो अब तो वीरो और युवा जैसी रचनाओं का प्रणयन किया क्योंकि कवि को भली-भांति ज्ञात है कि युवा देश के भविष्य हैं। देश को सही दिशा देने की उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है युवाओं में ओज, तेज, शोर्य, शक्ति, उत्साह, उमंग सभी कुछ बिद्यमान है। अतः वे यदि संगठित होकर प्राण-पण से जुट जाए तो देश का नक्शा बदल सकता है। राष्ट्र की जो छवि आज हमारी कल्पना में है-युवा शक्ति उसे साकार करने की क्षमता रखती है। जाग उठो अब तो वीरो’ वाली कविता में कवि ने युवाशक्ति को इसीलिए ललकारा है।
    हमारा सबका अनुभव है कि विदेशी शासक चले गए किन्तु हमारे आचरण, व्यवहार, परम्पराओं पर वे अपनी संस्कृति की ऐसी छाप छोड़ गए हैं जो मिटने के बजाय दिनों-दिन गहरी होती जा रही हैं। हम सब अंग्रेजी और अंग्रेजियत के शिकार हो रहे हैं। राजनीतिक गुलामी से तो मुक्ति मिली पर हम उनकी सांस्कृतिक गुलामी में पूरी तरह जकड़ गए हैं। छोड़ दो अब तो गुलामी में कवि ने लोगों का ध्यान इसी ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया है। इसी क्रम में हिन्दी भारत मां की बिन्दी भी एक महत्वपूर्ण कविता है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि हम अपनी जननीतुल्य, पूज्य मातृभाषा (हिन्दी) की घोर उपेक्षा कर रहे हैं और अंग्रेजी को सिर माथे पर बिठाए हैं। अंग्रेजी को हम संभ्रान्त होने का मानदंड मान रहे हैं।
    आजकल की राजनीति के कर्ताधर्ता हमारे नेता हैं किन्तु नेताओं का आचरण आज प्रश्नों के घेरे में है। इन्हीं प्रश्नों को समेटकर कवि ने भारतीय नेता कविता रची है। बड़े तीव्र कटाक्ष किए हैं कवि ने इस कविता में। गांधी जी का प्रसिद्ध कथन है रीयल इण्डिया लिव्स इन विलेजेज गांधी जी की यह उक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, राघव जी ने भी गांधी जी की इस उक्ति से सहमति व्यक्त करते हुए एक कविता में गांव और शहर की तुलना करते हुए गांव की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। भले ही वोटबैंक की राजनीति और शहरी सभ्यता ने ग्राम्य-संस्कृति को विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है किन्तु फिर भी गांवों में जीवन की सहजता और सरलता के दर्शन आज भी किये जा सकते हैं। इस प्रकार कवि की इस कृति की समस्त रचनाओं का अवगाहन करने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पंहुचते हैं कि कवि में राष्ट्रवाद, राष्ट्र-भाषा और स्वदेशी भावना के प्रति प्रेम कूट-कूट कर भरा है। इन सभी भावों की सफल अभिव्यक्ति उनके काव्य में झलकती है। अपनी बात को सशक्त और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता से कवि विभूषित है।
    शब्दों पर अच्छी पकड़ और भाषा पर कवि का अच्छा अधिकार है। शब्द-सामथ्र्य की समझ में कवि निष्णात है फिर भी उन्होंने बोधगम्यता सर्वत्र बनाए रखी है। कवि का काव्य क्लिष्टता दोष से सर्वथा रहित है।
    जहां तक अलंकृति का प्रश्न है उस संबंध में पंत जी की दो पंक्तियां याद आती हैं-
        तुम वहन कर सको जन-मन में मेरे विचार
        वाणी तुझको चाहिए और क्या अलंकार।।
    कवि विवेकशीलजी ने इसी आदर्श का अनुसरण किया है वे अलंकारों के फेर में ज्यादा नहीं पड़े, सहज रूप में कोई अलंकार बन पड़ा तो उससे परहेज भी नहीं किया।
    सारांश रूप में यही कहना है कि विवेकशील एक नवोदित साहित्यकार हैं। वे न केवल अपनी कविता के माध्यम से वरन पत्रकारिता के माध्यम से भी मां भारती की सेवा कर रहे हैं। वे राष्ट्रोत्थान की कामना से ओत-प्रोत हैं और राष्ट्रीय गौरव से लबालब है। राष्ट्र को, राष्ट्रभाषा को और साहित्य को उनसे बड़ी आशाऐं हैं और इन आशाओं को पूरा करने हेतु विवेकशील में असीम संभावनाऐं भी विद्यमान हैं। मेरी शुभाकांक्षा है कि विवेकशील की आरती पूरे भारत में गूंजे। उनकी यशस्विता (जिसका प्रयास नहीं किया जा रहा)  का प्रकाश दिग-दिगन्त तक फैले। अंत में उनके काव्य की कतिपय पंक्तियां अवतरित करते हुए अपनी इस समीक्षात्मक टिप्पणी का समापन करता हूँ।
        भलाई रास्ता वो जो शिखर के पार जाता है।
        जमाना भी उसे ना रोक पाता हार जाता है।
        संभलना तू पथिक, चलना अकेले ही यहां होगा,
        प्रभू ही साथ में होगा नहीं संसार जाता है।       
                    इति शुभम्
                        -ब्रजराज सिंह तोमर
                        आजाद नगर, हरदोई
                              लेखक- आइना,

आत्मिकी- विवेकशील

जो देश ज्ञान की दृष्टि से विश्व में सर्वोच्च ख्याति प्राप्त रहा हो, धर्म और संस्कृति जैसे अनूठे शब्दों का जिसने संसार को बोध कराया हो, जहां के पुरुषों ही नहीं अपितु नारियों ने भी प्रत्येक क्षेत्र में उच्चायाम स्थापित किये हो, जो विश्व में सोने की चिडि़या के नाम से चर्चित रहा हो, और मध्यकाल से जिसने इस सोने की चिडि़या को बाजों से बचाने के लिए 1000 वर्ष तक निरन्तर प्राणों की आहूतियां दी हों। पीड़ा, दासता और दुव्र्यवहार को झेलते हुए भी जिसने कभी समर्पण न किया हो और अंततः विखण्डन की वेदना को सहन करते हुए स्वतंत्रता की देवी को पुर्नस्थापित किया हो, विदेशी व विधर्मी दर्शन की अमानवीय अवधारणाओं को उखाड़ फैंकने के लिए अनगनित बलिदान देने वाला देश जिसने हर प्रकार के दंश झेलते हुए भी सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना की हो; उसे केवल एक भूखण्ड नहीं बल्कि एक जीवंत राष्ट्र के रूप में देखा जाना चाहिए।
    किन्तु सैकड़ों वे जिनके कि हम नाम जानते हैं और हजारों वे जिनके नाम या तो इतिहास को भी नहीं पता हैं या फिर कलवाकरण की प्रक्रिया के चलते मिटा दिये गए हैं; उन सभी वीर, त्यागी, सत्पुरुषों के राष्ट्रनिर्माण के स्वप्नों को सत्ता के मद में अंधी राजनीति और भोगवाद से प्रेरित जनता जब केवल 60-65 वर्षों में भूलने लगती है और जब आम आदमी को रोटी-कपड़ा-मकान, स्वास्थ्य -शिक्षा-सुरक्षा, बिजली-पानी-सड़क जैसे जीवनोपयोगी तत्वों केे लिए भीषण आन्दोलन करने पड़ते हों तथा इस मांग को पूरा कराने के सतत् प्रयासों के चलते जब आतंकवाद,नक्सलवाद, घुसपैठ, जनसंख्या, आरक्षण, जातिवाद जैसे विशेष बिन्दु हवा में उड़ जाते हों या फिर राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग में लाये जाते हों और इस सबके बीच सिंहासन पर विराजमान धृतराष्ट्र कौरवों की समूची सेना को साथ ले देश को निगल जाने पर उतारू दिखाई देते हों, और जहां देश का गला छोड़ने की मांग करने वालों को पीटा और जेलों में डाला जा रहा हो;     उस देश का पीडि़त और संवेदनशील नागरिक यदि कुछ भी लिखेगा या कहेगा तो आवश्यक नहीं कि वह संसदीय और साहित्यक शब्दावली में गुंथा हुआ हो। वह कभी आक्रोश होगा तो कभी कुंठा, कभी सजल वेदना होगी तो कभी आर्तनाद, कभी प्रेरणा होगी तो कभी प्रार्थना, कभी निर्देशन होगा तो कभी निवेदन। इन सभी मानवीय भावों का मिला-जुला स्वरूप है मेरी कृति ‘अभी स्वप्न धूमिल हैं’। जहां प्रदूषित सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक वातावरण में अपेक्षा नहीं अपितु एक क्षीण आशा अवश्य है कि एक दिन राष्ट्र का जागरण होगा और इन वर्तमान असुरों के आतंक से समाज को मुक्ति मिलेगी। भारत की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक स्वतंत्रता को लाने और बचाने वालों का स्वप्न कभी न कभी अवश्य साकार होगा। जिसकी नींव में यदि मुझे भी एक पत्थर बनने का सौभाग्य मिला तो मैं अपना जीवन धन्य समझूंगा।
    मैं कोई साहित्यकार नहीं हूं इसलिए साहित्यक त्रुटियां होना संभव हैं। मेरी कुठाओं को कविताओं के रूप में व्यवस्थित करने वाले महानुभावों तथा इस पर टिप्पणियां देकर इसे मूल्यवान बनाने बरिष्ठ कवि श्री कंुवरपाल शर्मा ‘कंुवर’, आइना जैसी पुस्तक लिखने का सत्साहस संजोने वाले प्रेरणापुंज श्री ब्रजराज सिंह तोमर, एवं शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में नित नूतन आयाम स्थापित करने वालीं मेरी आदरणीय गुरू श्रीमती डा. उषा पाठक (एसो.प्रोफेसर हिन्दी) का मैं हृदय से आभारी हूं जिन्होंने इसे प्रकाशन योग्य बनाया। मेरी जीवन यात्रा में किसी भी प्रकार की भूमिका निभाने वाले बन्धुओं का भी मैं आभारी हूं जिनके नाम ले पाना मेरे लिए संभव नहीं हैं। संकलन में कुछ यदि व्यक्तिगत लगे तो पाठक मुझे क्षमा करेंगे ऐसा मेरा विश्वास है।
    अंत में यही कहूंगा कि यदि मेरी बात भारतवर्ष के एक भी व्यक्ति को निजी स्वार्थ, जातिवाद एवं अन्य संकीर्णताओं से ऊपर उठ राष्ट्र-प्रेम के पथ पर अग्रसर कर सकी तो मैं इस संग्रह को सार्थक समझूंगा।
    वन्दे मातरम्!!
                                                                                                                                           -विवेकशील
                                                                                                                       सिकन्दराराव, हाथरस (उ.प्र.)

हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे

हो मन ये निश्छल, विमल हो ये वाणी.
जगे राष्ट्रभक्ति, जगे राष्ट्र प्राणी..
    हृदय ज्ञान जैसे, तू गीता का भर दे,
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे.
कहीं कष्ट देखँू, नहीं चुप रहूँ मैं,
मनुज वेदना को नहीं चुप सहूँ मैं.
    हिलें दुष्ट दिल, शब्द ऐसे प्रखर दे,
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे.
जो अपनों से भारत छला जा रहा है.
प्रबल सत्य सूरज, ढला जा रहा है.
    कहूँ सत्य वह; भावना ऐसी भर दे.
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे.
मेरे देश बन्धू, खड़े हीनता में.
हैं हाथों को बाँधे पड़े दीनता में,
    खड़े हों वे उठ बात में वो असर दे.
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे.
बनूँ मैं न याचक कभी भौतिकी का.
रहूँ एक बाहक, सदा ही गती का.
    बनूँ सत्य का पारखी वह नजर दे.
    हे शारदे माँ मुझे ऐसा वर दे...

मेरी कविता राग नहीं संवाद है

मेरी कविता राग नहीं संवाद है
नहीं प्रशंसा की इस में फरियाद है
दूर प्रलोभन की कारा के फंदों से
मुक्त गगन में उड़ने को आजाद है

जिसको भली लगे वो दिल में रख लेना
जिसको लगे बुरी वो दिल पर मत लेना
शान्त भाव से पढ़ना अन्तर्नाद है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

इसमें नहीं बन्दना कोई ताजों की
इसमें पीड़ा है भूखे मोहताजों की
सच कहने का यह अपना अंदाज है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

कहीं-कहीं पाओगे इसमें क्रोध है
और कहीं पर सदियों का प्रतिशोध है
यह गूंगों की बोली है, आवाज है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

इसमें निर्बल के आंसू की धार है
दुष्ट, कमीनों को इसमें ललकार है
यह बलिदानी भाषा है, अनुवाद है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

यह भूषण, दिनकर, गुप्तों की वाणी है
यह भारत के आरत को कल्याणी है
राष्ट्रप्रेम है और न कोई वाद है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

मैं गाता हूँ सोते हुए जवानों को
गाऊँगा वेवश मजदूर किसानों को
अन्धी आजादी में जो बरबाद है
मेरी कविता राग नहीं संवाद है

काव्यगत विवशता

ना कोई लेखक, न ज्ञानी,
ना समझिए कोई कवि हूं।
कर्म-पथ पर वेदना संग
बढ़ रही इक गौण छवि हूं।

शब्द कुछ सौन्दर्य पर
मैं भी लिखूं मन चाहता ये।
प्रकृति की अठखेलियों पर
कुछ कहूं मन चाहता ये।

किन्तु जब लेखन के क्षण में
लेखनी है हाथ आती।
दृश्य सब शोषण के दिखते
ना तरंग मन में समाती।

जब हिरणि के नयन पर मैं
अपनी दृष्टि फंैकता हूं।
बस तभी शोषित हुई
अबला के आंसू देखता हूं।

सोचता जब रसभरे
अधरों पै मैं मुस्कान नर्तन।
बस तभी होता है मुझको
सूखते होठों का दर्शन।

मन्द, शीतल सी बयारें
शब्द में मुझसे न बंधतीं।
देखकर भारत की पीड़ा
लपट ही मन में हैं उठतीं।

आम की डाली पै मुझको
कूक कोयल की न भाती।
रोज निर्दोषों की हत्या से
तड़प जाती है छाती।

बढ़ रही जब अंधता तब
ज्योति पर कैसे लिखूंगा।
मैं स्वयं से ही करूं छल
तब स्वयं को क्या दिखूंगा।

घोर व्यापक गहन तम में
भूमिका होती जो रवि की।
उस तरह आलोक देती
भूमिका होती है कवि की।

गद्य हो या पद्य हो बस
बात मैं अपनी कहूंगा।
सत्य की अभिव्यक्ति होगी
अंत तक ना चुप रहूंगा।

भारत दर्शन

आर्य देश भारत का जग में नाम रहा है ऊँचा
लेकिन केवल तब तक जब तक काम रहा है ऊँचा
ज्ञान पताका भारत की सारे जग में छाती थी
सारे जग की तरूणाई हम से शिक्षा पाती थी

भरद्वाज, नागार्जुन जैसे विज्ञानी की धरती
ज्ञान और विज्ञान सिखाने को आकर्षित करती
रामप्रभु का मर्यादा पालन अदभुत् चरित्र था
और कृष्ण के सत्स्वरूप में भी एक दिव्य चित्र था।

जाति-पांति का भेद नही था आर्य-आर्य थे भाई
आर्य जगत में ऊँच नीच की नहीं पड़ी थी खाई
कर्मों से अधिकार प्राप्त थे, कोई द्वेष नहीं था।
भरे पेट थे सबके भूखा कोई शेष नहीं था।

प्रचुर रूप सम्पत्ति भला संग्रह की बात कहां थी।
त्यागमयी जीवन दर्शन में कोई घात कहाँ थी।
सभी सुखी हो; सभी निरोगी ये हम ही कहते थे।
जप-तप-नियम और संयम से ही जीवन जीते थे।

दया-दान से भक्ति-ज्ञान से बढ़ी धीरता हममें
परहित में बलिदान भाव ने गढ़ी वीरता हममें
निःसंदेह उड़ायें कोई अब उपहास हमारा
किन्तु सैकड़ों सदी पुराना है इतिहास हमारा

कही त्याग है, कहीं शौर्य है, पीड़ा कही घनेरी,
कभी रुदन का करुणानाद है, कभी बजी रण भेरी
किन्तु शान्ति के अनुचित दर्शन की शैतानी माया
वैभव बढ़ता गया किन्तु मन में आलस था छाया


जब बढ़ता है वैभव आलस खुद ही आ जाता है
दमक रहे आनन पर तम का बादल छा जाता है
ईश्वर की भी कृपा सदा उस ‘जाती’ पर रहती है
दुष्टजनों पर जिन की हरदम भृकुटि तनी रहती है

धन वैभव और सत्य तभी तक जीवित रह सकते हैं
जब तक उससे पोषित जन पीड़ा भी सह सकते हैं
और नहीं तो शैतानी दर्शन आगे बढ़ता है
जो चरणों का पात्र पकड़ गर्दन सिर पर चढ़ता है

तभी मही के अन्य भाग पर जो भूखे थे बर्बर
ज्ञान और दर्शन के जिनके कोष पड़े थे जर्जर
वे आये सम्पत्ति लूटने भारत में दल लेकर
योगमयी भूमि को रोंदा पशुओं सा बल लेकर

मंगोलों, अरबों ने भारत शक हूणों ने लूटा
लेकिन फिर भी हिन्दु जाति का दर्प नहीं था टूटा
वैभव से जन्मी विकृति का लाभ दुष्ट ने पाया
पंख नौंचने स्वर्णपक्षि के बार-बार वह आया

किन्तु चुकानी पड़ी उसे भी कीमत इसकी भारी
दृश्य दिखाये हमने भी कुछ उनको हाहाकारी
किन्तु कहें क्या हाय फूट ने अपना असर दिखाया
धीरे-धीरे गीदड़ ने सिंह के घर पैर जमाया।

जो थे समझौतेवादी, वे तो झुकते जाते थे
थे स्वाभिमान से भरे हुए मरकर चुकते जाते थे
कुछ छीना भारत दुष्टों ने हिंसा मक्कारी से
कुछ हमने भी दे डाला अपनी ही गद्दारी से

शासक उन्हें बनाया जिनको अन्न न था खाने को
लाखों देवालय तुड़वाये इक तमगा पाने को
धन-दौलत को लूटने वाले बने देश के राजा
धर्म-संस्कृति पा सकती थी फिर कैसे दम ताजा

फिर क्या कहें, बतायें कैसे, क्या-क्या हमने झेला
दुष्टों ने सत्ता पाकर के खेल दानवी खेला
माँ-बहिनों के स्तन काटे ग्रन्थागार जलाये
बैलों से चलते कोल्हू हिन्दू-जन से चलवाये

चैहानों के लाल कोट को लाल किला कर डाला
राजमहल का नाम बदल कर ताजमहल रख डाला
विक्रम का जो बेध खंभ ज्योतिष गणना का बिन्दू
नाम कुतुबुमीनार उसी का नहीं जानता हिन्दू

इसी काल में हिन्दू होने का हम ‘कर’ देते थे
या चोटी देते थे या फिर पूरा सर देते थे
और हमारी बहिन-बेटियाँ हरना पाप नहीं था
इसीलिए जौहर में जलना भी अभिशाप नहीं था

इसी काल भारत भूमि ने लाखों वीर गवांये
शासक तो वे रहे किन्तु वह जीत हमें ना पायें
बप्पा रावल, पृथ्वीराज या हो राणा बलिदानी
वीर शिवा के छद्म युद्ध की अद्भुत अजब कहानी

इस्लामिक बर्बरता हमसे दस सदियों तक जूझी
अब दोनों को मजा चखा दे, अंग्रेजों को सूझी
व्यापारी का भेष बनाकर के भारत मंे आये
मक्कारी से मक्कारों को चोट वही दे पाये

शनैः शनैः व्यापार बढ़ाया फिर शासन हथियाया
कान पकड़कर राजभवन से गुण्डों को धकियाया
जो करते थे दमन, दमन उनने भी जमकर झेला
अंग्रेजी डंडा जमकर उनकी काया से खेला


मालिक नया मिला भारत को और चली फिर गाड़ी
दीन-हीन हमने देखा खिंचते माता की साड़ी
मन में भी विश्वास क्षीण या हाथ हो गये भारी;
पीठ झुका कर फिर चल दौड़े लेकर नई सवारी

और चले पच्चीस दशक तक गहन क्षोभ में जीकर
अपमानों-अत्याचारों का गरल कसैला पीकर
किन्तु नही थे सभी जिन्होंने था इसको स्वीकारा
दुष्टों के दानवी कृत्य से हर कोई ना हारा

जो मन से स्वच्छन्द उसे कोई कैसे बाँधेगा
राष्ट्र कार्य संकल्प कड़ा हो कोई क्या करे लेगा
फिर भारत भू के आंगन में जागी नई जवानी
आजादी के दीवानों ने लिख दी नई कहानी

मंगलपाण्डे ने विद्रोही ध्वजा हाथ में लेली
जोश जगाकर निज गौरव का फांसी तक थी झेली
और चला फिर क्रम कुछ ऐसा एक-एक से आगे
अंग्रेजी मोटी रस्सी के टूट रहे थे धागे

दमन किया स्वतंात्र्य यज्ञ का बहुत चलाकर गोली
मरने वालों की फिर भी बढ़ती जाती थीं टोली
मातृभूमि की लाज बचाने को नारी भी आई
इक छोटी सी टोली ले भिड़ बैठी लक्ष्मीबाई

सत्तावन से सैंतालिस तक धूम मचाई भारी
मातृभूमि की रक्षा को नित प्रकट हुए अवतारी
इक सुभाष जिसने शक्ति को शक्ति से ही तोड़ा
जर्मन, इटली, जापानी सत्ता से नाता जोड़ा

जो समझे थे वीर स्वयं को उनको धूल चटा दी
फूले नहीं समाते थे उनको औकात बता दी
वो शेखर आजाद नहीं करते थे कभी समर्पण
गोली का उत्तर गोली से नहीं सत्य का अर्पण

भगत सिंह, अशफाकउल्ला की अद्भुत थी कुर्बानी
अनगिन वीरों ने लिख डाली मिलकर नई कहानी
विश्व युद्ध में अरु भारत में दोनों ओर लडें थे
रक्त पिला धरती को आजादी की ओर बढ़े थे

इसी समय को ताक रहा था मजहब वाला विषधर
सत्ता को हथिया लेने के ढूँढ़ रहा था अवसर
अवसर जाते देख हाथ गोरों से तुरत मिलाया
फिर भारत को खण्डित करने का अभियान चलाया

राजनीति के प्रेमी को केवल सत्ता थी प्यारी
इसीलिए पापी की शायद मांग गई स्वीकारी
और अन्ततः हिन्दू जाति की फिर से किस्मत फूटी
जिसके हेतू रक्त बहाया वह भारत मँा टूटी

टूट पड़े दानव, मानव पर जम कर रक्त बहाया
भारत माँ के वक्षस्थल पर पाकिस्तान बनाया
शान्ति दूत गांधी जी का भी टूट गया था सपना
उसने खूँ की होली खेली, जो था उनका अपना

धन-दौलत सम्मान लुटाकर हिन्दु वहाँ से भागे
लाखों जीवन लुटे, नहीं भारत के नेता जागे
एक तरफ से मार रही थी भारत को गद्दारी
और दूसरी ओर खड़ी थी अपनी रंगी सियारी

सत्य-अहिंसा के अति की थी जपी जा रही माला
और पाक को इसीलिए पचपन करोड़ दे डाला
खूब पिलाओ दूध साँप को जहर बना करता है
और दुष्ट पालक पर ही बेबात तना करता है


पीकर जहर विभाजन का हम बैठ गये चुप होकर
राजनीति में शोक न था, भारत का मस्तक खोकर
पाक समर्थक को भी पापी राजनीति ने रोका
राष्ट्रवाद के दिल में गद्दारी का नश्तर भौंका

हिन्दु जाति ने सोचा फिर से भारत नया गढ़ेगें
मानवता की ले मशाल दुनिया की ओर बढ़ेंगे
दयानन्द का स्वप्न, विवेकानन्द पुनः जागेंगे
धर्म ध्वजा होगी प्रचण्ड पापी डरकर भागेंगे

भारत एक बनेगा, फिर से दुनिया में चमकेंगे
नहीं भिखारी होंगे सब को कुछ ना कुछ तो देंगे
आजादी का लाभ देश में अंत तलक जायेगा
सदियों से जो दुखी रहा वह भी अब सुख पायेगा

अपना तंत्र और शासन सब कुछ ही अपना होगा।
बनें नींव के पत्थर उनका पूरा सपना होगा।
किन्तु नहीं यह सत्य हुआ लाखों घर में कूमिल हैं
आजादी लाने वालों के ‘अभी स्वप्न धूमिल हैं’

भारत ‘एक’ बनाने को हम धर्महीन बन बैठै
सैकूलर सिंहासन कह पाखण्डी जन, तन बैठे
सत्ता सुख में लीन रहे सब ही बारी-बारी से
लूटा और लुटाया भारत पूरी तैयारी से

कारागार जिन्हें होना था खादी में छुप बैठे।
सत्य अहिंसा के पालक अपने घर में चुप बैठे
अब-तक भारत में आतंकी हिंसा नही रूकी है
मध्यकाल से जिसको देखा, अब भी नहीं चुकी है

सीमा के अन्दर बाहर षड़यन्त्र हो रहे भारी
भारत को टुकड़े-टुकड़े करने की है तैयारी
कभी पाक के गुण्डे हम पर रौब जमा जाते हैं
कभी चीन के हाथ हमारी ध्वजा हिला जाते हैं

घर में भी हम सुखी नहीं बाहर ऐसी तैसी है
मानवता के दर्शन की देखो हालत कैसी है
छः दशकों के बाद देश ने सोचो क्या पाया है
कंकरीट के जंगल हैं या व्यसनों की माया है

भूख करोड़ो ने पाई है और मिली बेकारी
उदर पूर्ति के हेतु बढ़ी तन सौदे की दुश्वारी
भोगवाद का दर्शन कैसा अट्टाहस करता है
दया-त्याग का भारत देखो शनैः शनैः मरता है

नाम धर्म का लेे आतंकी हिंसा होती जातीं
निरपराध निर्दोषों की नित जानें खोती जातीं
हम अमरीकी दादा से फरियाद किया करते हैं
या फिर हाथ जोड़ ईश्वर को याद किया करते हैं

क्योंकि हमारा सिंहासन ही स्वाभिमान खो बैठा
लगता जैसे इन्द्र हमारा नृत्यमग्न हो लेटा
शासन में जो उसे चाहिए इक सोने की लंका
फिर क्या पड़ी किसी को ठोंके राष्ट्र भक्ति का डंका

हो सकता है राष्ट्र भक्ति में प्राण गंवाने होंगे
कुछ करने के लिए लोह के चने चबाने होंगे
इसीलिए निरपेक्ष धर्म से राष्ट्र लुटाते रहते
तरह-तरह की चालों को भी राष्ट्र-भक्ति हैं कहते

राजनीति सेवा ना कोई सिर्फ एक धन्धा है
जातिवाद के जहर सना मतदाता भी अन्धा है
तथाकथित आजादी में काले अंग्रेज बढ़े हैं
आजादी के लिए लडे़ जो अब भी वहीं खड़े हैं


कहीं खुली तो कहीं-कहीं, गुप-चुप सिसकी जारी है
दुनिया भर से लड़ी कौम अपनों से ही हारी है
कहीं भूख के कारण कैसा नक्सलवाद खड़ा है
कहीं अन्न का लालच देकर माओवाद बढ़ा है

कहीं बीस से तीस रुपैया जिस्मों की कीमत है
भाग्यवाद के भारत में यह भी केवल किस्मत है
और कहीं पर माँ के हाथों ही बच्चा बिकता है
कहीं बोध से मुक्त बाल का शोषण तक दिखता है।

आज देश का दर्शन भी अश्लील बना डाला है
केवल भोग विलासों वाली झील बना डाला है
यह सुभाष का नहीं और ना गांधी का भारत है
यह गुण्डों के हाथों है गुण्डों से ही आरत है

चार सौ लाख करोड़ देश का गुण्डे लूट चुके हैं
बीस हजार किसान दुःखी हो तन से छूट चुके हैं
रुपये बीस कमाते प्रतिदिन है करोड़ चैरासी
निर्धन की भारत माता तो पहले जैसी दासी

सत्तर लाख वर्ष में भूखे रह कर मर जाते हैं
और अगर जीवित रहते हैं तो जूठन खाते हैं
आज देश की आधी आबादी ही निर-अक्षर है
और देश में नेता जी का चैका है सिक्सर है

आज देश मंे बिना पढ़े हाथों को काम नहीं है
और काम भी है तो उसका पूरा दाम नही है
एक ओर हो त्रस्त अभावों से भारत मरता है
सेवा का ले नाम देश की कोई स्विस भरता है

कोई देश लूटकर केवल इटली को भरता है
कोई रोटी खा गरीब की नाटक सा करता है
कोई मन्दिर-मस्जिद के झंझट में उलझाता है
खड़ा विवादांे को करता है कुछ ना सुलझाता है

ले दलितों का नाम शेरनी कोई बन जाती है
तोड़-फोड़ के सौदे कर जमकर दौलत खाती है
आजमगढ़ जा आतंकों की बेल बढ़ाता कोई
ओसामा जी कहकर श्रद्धासुमन चढ़ाता कोई

सार रूप में समझो केवल भ्रष्टाचार बढ़ा है
केवल नैतिकता के शब्दों का व्यापार बढ़ा है
आज देश-संस्कृति से सत्ताओं को प्यार नहीं है
और देश का शासक भी सच्चा सरदार नहीं है

ऐसे क्रूर काल में कोई महामनुज आया है
जनता का है साथ और जिस पर ईश्वर छाया है
है सच की तलवार हाथ में सब पर ही है भारी
‘बाबा रामदेव’ कहते हैं लगता है अवतारी

याोग सिद्ध है, युग नायक है लगता जग त्राता है
जिसका कोई नहीं जगत में वो उसका भ्राता है
बांध लंगोटी कूद पड़ा है महासमर लड़ने को
क्रान्तिकारियों के भारत का स्वप्न अमर करने को।

और साथ में लगे हुए मरहाठी वीर हजारे
मार रहे हैं सत्ता को वे थप्पड़ बड़े करारे
गुण्डों से यह देश बचे वे मिलकर जूझ रहे हैं
और देश का जमा-बकाया दोनों पूंछ रहे है

अरे साथियो युग बदलेगा साथ जरा तुम आओ
जातिवाद से राष्ट्र बड़ा है, समझो और समझाओ
रोटी-कपड़ा अरु मकान सब जन ही पा जायेंगे
जीवन जीने की कतार में सब ही आ जायेंगे

अन्न-प्रदाता जो किसान है, भूखा नहीं मरेगा
शिक्षा और स्वास्थ्य पायेगा, उन्नति देश करेगा
सबको ही कुछ काम मिलेगा सबकी भूख मिटेगी
उजड़ी जाती आज जिन्दगी सुख से अरे कटेगी

सीमा-पार और अन्दर हम डर से नहीं रहेंगे
शक्ति हाथ में होगी सबसे सच्ची बात कहेंगे
मानवता को धर्म मान हमको आगे बढ़ना है
मानवता के सभी विरोधों से डटकर लड़ना है

अरे बन्धुओ! देश बचाने को आगे आ जाओ
बहुत हो चुकी मक्कारी मक्कारों को बतलाओ
स्विस का धन अपना धन है उसको वापस लाना है
और पकड़ कर दोषी को काराग्रह ले जाना है

अफजल और कसाबों को फांसी पर लटकाना है
पूआ-पूड़ी नहीं राष्ट्र है उनको बतलाना है
फिर भी ना मानें तो सीमा में घुस धमकाना है
मार-मार कर इन दुष्टों को भारत समझाना है

चीन-पाक को समझाना है छोड़ो जी मक्कारी
अपने हाथ जला देती है कभी-कभी हुशियारी
अगर नहीं मानोगे तो हम जड़े हिला डालेंगे
हम भी तो परमाणु-शक्ति, हम तुम्हें जला डालेंगे

लेकिन यह तब ही होगा जब गद्दार देश में ना हों
अवसरवादी दुष्टों की सरकार देश में ना हों
अपने भारत का खोया गौरव वापस लाना है
स्वाभिमान से ही जीना है या फिर मर जाना है

जाग उठो अब तो वीरो, भारत मां तुम्हें पुकारती

जाग उठो अब तो वीरो, भारत मां तुम्हें पुकारती।
उठो क्षत्र-रक्षक की जननी, लिए थाल में आरती।
करो तिलक पुत्रों का अपने
संकट है निज आन पर।
भरो वीरता उनमें इतनी
मिट जायें वे शान पर।
चढ़ जायें बलिवेदी पर
भारत हित रख कर ध्यान में।   
शिरोच्छेद से पूर्व न जायें
कभी कटारें म्यान में।
भरो जोश  ऐसा, जैसा भरता अर्जुन का सारथी।
जाग उठो अब तो वीरो.........................
जग को दुष्ट बिहीन बना दो
तलवारों की धार से।
रक्तिम नदी बहे धरती पर
बर्छी और कटार से।
कोलाहल मच जाये जग में
महादेव हुंकार से।
पट जाये सारी ही पृथ्वी
वीरों की पुकार से।
हो जायें हम एक सभी, हो नाम सभी का भारती।
जाग उठो अब तो वीरो.........................
खाते हैं वे भारत मां का
गीत पाक के गाते हैं।
उसकी शह पर ही ये दानव
उग्रवाद फैलाते हैं।
हम नहीं भूले सन् सैंतालिस
भारत मां को तोड़ दिया।
हर हिन्दुस्थानी मन का
विश्वास घड़ा ये फोड़ दिया।
लेकिन दुष्टो यह याद रखो, तब की कुछ नीति उदार थी।
जाग उठो अब तो वीरो.................................
एक नये भारत का सपना
भारतीय के मन में हो।
नहीं वक्त ज्यादा लगना
तब हिन्दुस्थान अमन में हो।
अरबों, मुगलों, अग्रेंजों ने
भारत मां को लूटा है।
कई बार हिन्दू का रक्षक
सोमनाथ भी टूटा है।
बदला लो हर एक घाव का मातृभूमि चिंघारती।
जाग उठो अब तो वीरो.......................
बचे न डायन कहने वाला
भारत मां को देश में।
खुलेआम ना घूमे कोई
आतंकी के वेश में।
आतंकी टोली का मित्रो
कहीं न नाम-निशान हो।
द्रोही ध्वज ना दिखें कहीं भी
भगवा ध्वज की शान हो।
घण्टे और घडि़याल बजें हो हर मन्दिर में आरती।
जाग उठो अब तो वीरो भारत माँ तुम्हें पुकारती.

सोया हुआ युवा है, संकट में राष्ट्र भारी

कहने को तो विकास की गंगा बहा रहे हैं।
हम हैं कि रोटियों को गिन-गिन के खा रहे हैं।
मूढ़ों के हाथ शासन कैसी बिडम्वना ये।
ये राष्ट्र की मलाई मिलकर के खा रहे हैं।
सोया हुआ युवा है, संकट में राष्ट्र भारी।
आतंक है चरम पर, निरपेक्षता है न्यारी।
लाखों गऊ की हत्या, हर एक मांसाहारी।
कहने ही भर को माता, ना जान माँ की प्यारी,
पाने को वोट केवल दुम को हिला रहे हैं
कहने को तो विकास...................।
कश्मीर है हमारा क्यों तुम लुटा रहे हो।
क्यों दुश्मनों को दुष्टो मक्खन लगा रहे हो।
फिर भी नहीं तुम्हारा वो पाक अत्याचारी।
वो मान ना सकेगा इक बात भी तुम्हारी।
खुद की हैं टाँगे टूटी, शासन चला रहे हैं।
कहने को तो विकास......................।
इनको न आती लज्जा, जिन्ना को देव कहकर।
पंहुचाया था फलक पर जनता ने कष्ट सहकर।
ये राम जन्मस्थल को बाबरी हैं कहते।
विध्वंस पर ये उसके दुःख व्यक्त करते रहते।
आतंकियों के घर पर दावत उड़ा रहे हैं।
कहने को तो विकास.....................।

ऐ हिन्दू यह याद रखो सम्मान तुम्हारा जायेगा

ऐ हिन्दू यह याद रखो सम्मान तुम्हारा जायेगा।
गौरवशाली यह अतीत बलिवेदी पर चढ़ जायेगा।
जन्मजात गद्दारों से तू बात प्रेम की करता है।
इसीलिए बस पल-प्रति-पल ही राष्ट्र-घात को सहता है।
काश्मीर में हत्याएँ नित जगह-जगह पर दंगे हैं।
देश द्रोहियों के कुहनी तक, हाथ खून में रंगे हैं।
एक दिन वो आयेगा जब कुछ नहीं बच पायेगा।
गौरवशाली यह अतीत...........................।।1।।

अपमानित होतीं द्रोपदियाँ, दुर्योधन की घातों में।
यह सब कुछ होता हम देखें दिन में भी औ’ रातों में।।
भीड़ लगी है दुशासनों की, कृष्णों के नहि दर्शन हैं।
केवल बचीं याचनाएं ही या फिर दीखें क्रन्दन हैं।।
होता रहा अगर ऐसा ही, तो सब कुछ मिट जायेगा।
गौरवशाली यह अतीत..........................।।2।।

रौंद रहे हैं वे हमको नित लेकिन हम चुप-चाप रहंे।
मान और सम्मान हमारा कुचल रहे हम तदपि सहें।।
मजहब की तलवारों से वे कर विध्वंस रहे भारी।
फिर भी रक्षा की आशा है, आये कोई अवतारी।।
पर कलियुग में तुम्हें बचाने और न कोई आयेगा।
गौरवशाली यह अतीत ............................।।3।।

मुम्बई घटना पर आक्रोश-दस-दस गुण्डे घर में घुस कर मार रहे हैं

कभी-कभी दिल सोच-सोच बैठा जाता है
घोर निराशा के क्षण में भारत माता है
हम स्वाधीन शक्ति होकर भी हार रहे हैं
दस-दस गुण्डे घर में घुस कर मार रहे हैं

और हमारा रक्त, रक्त है या है पानी
अय्याशी को शेष, देश को मरी जवानी
सभी बनेंगे लिपिक, चिकित्सक या अभियन्ता
कौन मूढ़ जो बने राष्ट्र का भाग्य नियन्ता
सजधज सड़कों पर फिल्मी गाने गायेंगे
क्या पागल जो सीमा पर लड़ने जायेंगे
और देश के अन्दर भी कोई मारेगा
गांधीगीरी के आगे वो ही हारेगा

भगवा धारण किये धर्म के जो चिन्तक हैं
लगता सबसे बड़े आज वे ही वंचक हैं
राम-कृष्ण की बात किन्तु हैं शस्त्रविरोधी
ज्ञानी बनते फिरें किन्तु बुद्धि है खो दी
पिटने वाले को मानवता समझाते हैं
भला बताते नहीं माल जिसका खाते हैं
आत्ममुग्ध हो नशा चढ़ाये रहते मन को
या गांजे की चिलम चढ़ाये रहते तन को
आत्मज्ञान की बात मृत्यु का भय होता है
इन्हीं दोगलों से समाज का क्षय होता है

लोकदिशा जो देते थे गढ़कर कविताऐं
जो वाणी बल पर मोड़ा करते सरिताऐं
वे अधिकांश लगे मनमोहक श्रृंगारों में
मोल बताते अपना खुलकर बाजारों में
लिखते फूहड़ गीत और साहित्य बताते
आत्मप्रशंसा करते मन ही मन मुस्काते
वे ही कालीदास और ना कोई दूजा
डालो पुष्पाहार करो सब इनकी पूजा
सोचो! कवि यदि भोगमयी साहित्य रचेगा
तो फिर कैसे त्यागमयी यह देश बचेगा

खुद को लोकतंत्र का जो स्तंभ बताते
देश जगाने वाला कहकर दंभ जताते
उनकी कलम दलाली के बल पर चलती है
सत्य दबा देती है जनता को छलती है

शिक्षा वह आधार जहां बनता चरित्र है
जिसका कोई नहीं ज्ञान उसका भी मित्र है
लेकिन तब क्या जब शिक्षक में त्याग नहीं हो
वेतन की ही चाह भाव की आग नहीं हो
कौन बनाये राम, बनाये कौन शिवाजी
शिक्षक अक्षर ज्ञान बताने तक ना राजी

सत्ता तो लगती है अब गुण्डों की दासी
निर्बल-निर्धन-कमजोरों के खूं की प्यासी
माननीय वे जो; तिहाड़ के अधिकारी हैं
वे इलाज क्या होंगे खुद ही बीमारी हैं
आज पुनः धृतराष्ट्र सिंहासन पर बैठे हैं
लूटपाट कर रहे सभी उनके बेटे हैं

अरे साथियो आज देश हित जुटना होगा
वरना निश्चित ही पिटना और लुटना होगा
हर जगहा मुम्बई जैसे गुण्डे टूटेंगे
पाक इशारे पर वे प्राणों को लूटेंगे
और नपुसक राजनीति कुछ कर न सकेगी
टूट पड़ी विपदा को शायद हर न सकेगी

मैं भी नहीं चाहता कुछ भी कड़वा बोलूं
अच्छा सुन्दर कहूं भला क्यों बिष सा घोलूं
पर कहता हूं ऐसों को सम्मान न देना
केवल शब्दों तक से कोई मान न देना
मेरा देश बचादें मैं गुणगान करूंगा
एक इशारे पर जीवन तक दान करूंगा

Wednesday, January 23, 2013

युवा वही जो कर्म-क्षेत्र में डट जायें तो डट जायें

युवा वही जो कर्म-क्षेत्र में डट जायें तो डट जायें।
लाख हटाऐं तूफां उनको लेकिन वे ना हट पायें।

भरी आग हो परिवर्तन की, जिसमें से टपके ज्वाला।
क्रान्ति भरी हो नस-नस में, हो जाये उसमें मतवाला।
भरा हुआ हो नये जोश से, और नई आशाओं से।
बढ़े चलें पग, रुकें नहीं वे, सभी नई बाधाओं से।
बांध कफन तब बढ़े चलें वे, मर जायें या मिट जायें।
लाख हटाऐं तूफां उनको...........................।

राष्ट्र-कार्य का व्रत लेकर वे यदि निष्ठा से बढ़े चलें।
राष्ट्र-द्रोह की हर शक्ति से पग-पग पर वे भिड़े चलें।
नहीं बचेंगे तब ये कायर भारत मां के सीने पर।
बरसाना तब बम और गोले पाकिस्तान कमीने पर।
राष्ट्र-एकता मुख्य सूत्र है ना जाति में बंट जाऐं।
लाख हटाऐं तूफां उनको..........................।

अरेे युवा तुम शक्ति पुंज हो, राष्ट्र तुम्ही पर टिका हुआ।
मगर कष्ट यह शक्ति पुंज ही है आपस में बंटा हुआ।
राष्ट्र-एकता लक्ष्य मात्र मत जात-पांत की बात करो।
सिसक रहा है राष्ट्र प्रगति को क्यों तुम उस पर घात करो।
करो प्रयास यही मन से अब ना कैसे भी बंट पायें।
लाख हटाऐं तूफां उनको..........................।

संसद पर हमले का दोषी, अफजल भी बच जाता है

होली के रंग फीके लगते इन रंगो में क्या लाली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं तो क्या देगी यह दीवाली।।
जब सीमा पर दीप बुझ रहे घेर रही काली छाया।
नेता गणित लगाते प्रतिदिन लाशों पर क्या-क्या पाया।।
रोज शांति का पाठ पढ़ाते हैं निर्दय, पाखंडी को।
कभी दण्ड दे सके न कायर घर में भी उद्दण्डी को।।
उनको क्या मिल रहा करें जो, सीमा की नित रखवाली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं...........................................।।

फोड़ रहे वे बमें रात दिन, और जलायें घाटी को।
कंधे पर ले घूम रहे तुम गांधीजी की लाठी को।
क्या तुम मूढ़ो सोच रहे हो, क्या ऐसे बच जाओगे।
मरना तो तुमको भी होगा, बस पहले मरवाओगे।
घेर खड़ी है आज देश को, आतंकी छाया काली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं............................................। 

खुलेआम कर रहे वकालत जोे भारत में दुष्टों की।
तुमको फिर भी नहीं हो रही है अनुभूती कष्टों की।
संसद पर हमले का दोषी, अफजल भी बच जाता है।
मतपेटी को लूटने वाला गोली तक खा जाता है।
अब तुम निर्णय कर न सकोगे, नहीं आत्मा, तुम खाली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं............................................।

अरे मूर्खो ध्यान करो कुछ क्यों शासन को ढोते हो।
हट जाओ सम्मान सहित ही क्यों वोटों को रोते हो।
क्यों बुझवाते दीप निरन्तर, क्यों करते मांगे सूनी।
आज नहीं तो कल होनी है, होनी है होली खूनी।
और भला तुम कहाँ जाओगे लहर चली गर मतवाली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं...........................................

आज फिर से है संकट खड़ा हो रहा

आज फिर से है संकट खड़ा हो रहा।
कल था छोटा मगर अब बड़ा हो रहा।
बच सके मातृभूमि जतन कीजिये।
आगे बढ़ बांध सर पर कफन लीजिये।
आप अपनी ही मस्ती में क्यूं चूर हैं।
बस सुनामी की लहरें कुछ ही दूर हैं।
देशद्रोही का खेमा बड़ा हो रहा।
आज फिर से है..............................।

लूटा धन को है दौलत को सम्मान को।
तोड़े मन्दिर न छोड़ा है भगवान को।
और हम फिर से मन्दिर ही गढ़ते रहे।
भय के मारे थे गीता ही पढ़ते रहे।
गीता पढ़ ली न समझे अभी सार को।
डूबी नैया न थामा है पतवार को।
अपना मन पाप का इक घड़ा हो रहा।
आज फिर से है..............................।

हो मनुज तो स्वयं के ही हित कुछ करो।
जाग जाओ अरे स्वांस फिर से भरो।
हो सका जाग कर मृत्यु टल जायेगी।
कुछ किया तो ये सृष्टि बदल जायेगी।
छोड़कर लोभ, लालच जुड़ो प्रीति से।
संगठित हो करो काम कुछ नीति से।
देश पर आंख अपनी गढ़ा वो रहा।
आज फिर से है.............................।

रोता है कश्मीर, सिसकती घाटी है.

रोता है कश्मीर, सिसकती घाटी है.
कट्टरता ने भारत माता बांटी है.
मक्कारी है या सैकूलर चूकें हैं.
अमरनाथ की पिण्डी पर बंदूकें हैं.
और जुबां पर नारे पाकिस्तान के.
रोज जलाते झण्डे हिन्दुस्तान के.
चाहे पेट भरे भारत की माटी है.
कट्टरता ने भारत माता बांटी है.
राजनीति गद्दारों की हमजोली है.
कड़क नही अब कायरता की बोली है.
राष्ट्र अस्मिता अब गुण्डों की दासी है.
दानवता मानव के खूं की प्यासी है.
खोजा नहीं मिली, गाँधी की लाठी है.
कट्टरता ने भारत माता बांटी है.
पाठ घृणा के धर्म नाम पर चलते हैं.
संत-वेष में घर-घर पापी पलते हैं.
हम तो अंधे हैं वोटो की चाहों में.
वो बारूद बिछाऐं चाहे राहों में.
आहत भारत माँ ना केवल घाटी है.
कट्टरता ने भारत माता बांटी है.
आज देश में क्रन्दन है कायरता का.
अय्याशी का व्यसनों की आतुरता का.
कोठी अरू कारें संतों का सपना है.
सभी ओर से लूटो भारत अपना है.
कष्ट यही जड़ अपने हाथों काटी है.
कट्टरता ने भारत माता बाँटी है.
रोता है कश्मीर सिसकती घाटी है.

इक नये भारत का सपना, आज मेरे मन में है

इक नये भारत का सपना, आज मेरे मन में है।
इसलिए ही दर्द सारा, अब मेरे दामन में है।
सिंध से प्रारम्भ जिसका, वो नहीं रुक पा रहा।
और निर्दोषों का प्रतिदिन, रक्त बहता जा रहा।
हो रहीं विधवा निरन्तर, नवविवाहित नारियां।
राष्ट्र-भक्तों के शवों को, ढो रही हैं लारियां।
कौन जाने कष्ट कितना, आज उस आंगन में है।
इक नये भारत का सपना...................................।

जिन्ना, मुशर्रफ, और लादेन, का न रुकता सिलसिला।
सोचिये इस राष्ट्र को अपनों से अब तक क्या मिला।
देश में भी जाने कितने राष्ट्र-घातें कर रहे। 
और हम तो आज भी, बस मधुर बातें कर रहे।
मजहबी उन्माद कितना, दानवी चिन्तन में है।
इक नये भारत का सपना...................................।

पक्षधर हैं जो विभाजन, के उन्हें फांसी मिले।
हिन्दुओं को धर्मस्थल मथुरा, और काशी मिले।
और अयोध्या में बने एक, भव्य मन्दिर राम का।
चिन्ह भी छोड़े न हम, गत दासता के नाम का।
हिन्दु का अस्तित्व केवल, असुर के मर्दन में है।
इक नये भारत का सपना...................................।

राष्ट्र रक्षा के हित जागरण चाहिए

दीप जलने लगें तो, बढ़े लालिमा।
अनवरत ज्योति से, दूर हो कालिमा।
खो ही जाए तिमिर एक आलोक से।
पाप मिट जाए सब राम के लोक से।
मुक्त मन, ना कि अब, आवरण चाहिए-2
राष्ट्र रक्षा के हित जागरण चाहिए।

छीने अब ना किसी की भी, रोटी कोई।
लूट से ना बने, बंगला कोठी कोई।
अब कृषक ना कोई आत्मघाती बने।
अब न मजदूर निर्बल पै कोई तने।
ऊंच ना नीच, सम, आचरण चाहिए-2
राष्ट्र रक्षा के हित............................।

अब न तड़पे कोई बृद्ध, विधवा कहीं।
मान रक्षा को चीखे, न अबला कहीं।
तुच्छ ‘‘मैं’’ से न हिंसा की घातें बढ़ें।
स्वार्थ प्रेरित परस्पर न बन्धू लडे़ं।
देश में ऐसा, वातावरण चाहिए-2
राष्ट्र रक्षा के हित.............................।

अनवरत राष्ट्रभक्ति का, संचार हो।
देश में कोई जीवित, न गद्दार हो।
धर्मच्युत धन के बल पर न कोई करे।
ना मजहब राष्ट्र खंडन की बातें करे।
ऐसा जीवन, कि या फिर, मरण चाहिए-2
राष्ट्र रक्षा के हित.............................। 

हे राम-कृष्ण की संतानो! तुमको फिर शोर्य दिखाना है

हे भारत के उज्ज्वल भविष्य!
तुमको आगे बढ़ना होगा।
शिक्षा की कर में ले कटार,
यह महासमर लड़ना होगा।
हे राम-कृष्ण की संतानो!
तुमको फिर शोर्य दिखाना है
बन ज्ञानवान, होकर सुजान
माटी का कर्ज चुकाना है।
तुम बराहमिहिर, जगदीशचन्द्र
भास्कराचार्य नागार्जुन हो,
गुरु कृष्ण समान तुम्हारे हैं,
तुम महासमर के अर्जुन हो
सम्पन्न सुखी सब जीवन हों
ऐसा भारत गढ़ना होगा।
हे भारत के .............
है तड़प रहा अब स्वर्णपक्षि
आहत अनगिन आघातों से
सब नौंच रहे हैं बार-बार
उसके पर अपने हाथों से
है कौन दुष्ट, है श्रेष्ठ कौन
शिक्षित होकर ही जानोगे 
 है कौन शत्रु है कौन मित्र
मंथन कर ही पहचानोगे
कितनी भी कठिन परीक्षा हो,
यह महाशिखर चढ़ना होगा
हे भारत के .................

कष्टों की आधार शिला पर जब जीवन बढ़ता है.

कष्टों की आधार शिला पर जब जीवन बढ़ता है.
केवल उस क्षण ही ईश्वर मानव चरित्र गढ़ता है.
चलो अकेले ही साहस से ढूढ़ो नहीं सहारे.
धारा के अनुगामी होओ, खोजो नहीं किनारे.
टूटन चुभन और पीड़ाओ में, जिनका हो जीना.
उपहासों, अपमानों का भी गरल पड़े जब पीना.
अपनों और परायों से जो साथ-साथ लड़ता है.
केवल उस क्षण ही ईश्वर .......................

धन्यवाद दो तुम कष्टों को वे जब-जब आते हैं.
बढ़ा ज्ञान जीवन में तब-तब दूर चले जाते हैं.
और काश यदि ऐसा शिक्षक जीवन में ना आये.
तो निश्चित ही जीवन गहरी तन्द्रा में खो जाये.
है प्रभु का वरदान, ‘मनुज चेतन’ सीढ़ी चढ़ता है.
केवल उस क्षण ही ईश्वर .......................

जिधर चलो तुम उसी दिशा में राह कंटीली आयें.
बड़े-बड़े दुर्योग साथ ही संयोजित हो जायें.
ईश्वर में विश्वास और हो ध्येय शुद्ध मानव का.
स्वयं ऊर्जा आ जाती है, हो विरोध दानव का.
मिटना है तो मिट ही जाये, ना मन में कुढ़ता है.
केवल उस क्षण ही ईश्वर .......................

कष्टों में भी निर्मल होना, ना कूड़े का डबरा.
और अंततः बाँध न पाये, सोने का भी पिंजरा.
जब मानव चरित्र ऐसा हो, उसे कौन क्या देगा?.
आना-जाना, खाली-खाली, कोई क्या ले लेगा?.
हानि लाभ से मुक्त गगन में जब पंछी उड़ता है.
केवल उस क्षण ही ईश्वर .......................

पड़ गये मेरे कदम भी, आज कारागार में

डूबती जाती है दुनिया, आज भृष्टाचार में।
पड़ गये मेरे कदम भी, आज कारागार में।

दण्ड के भागी हैं करते, मस्तियां बाजार में।
सड़ रहे निर्दोष फिर भी, बहुत कारागार में।
न्याय की ही प्रक्रिया में, लोग आते हैं यहां।
किन्तु फिर भी देखने पर, न्याय दिखता है कहां।
कर्म ही अपराध जिनका, ऐश हैं वो कर रहे।
समय ने रौंदा जिन्हें पल-पल हैं वे ही मर रहे।
न्याय तो अन्याय बनकर, रह गया संसार में।
पड़ गये मेरे कदम.......................................।

मन से जो टूटे हुए है, वो भी तन से टूटते।
करते अत्याचार तन पर, और धन से लूटते।
दानवों की भूमिका में, हैं पुलिसिए जेल में।
रात दिन रहती है दृष्टि, मात्र धन के खेल में।
धो रहे हैं कुछ तो मुंह को, अश्रु के अम्बार में।
पड़ गये मेरे कदम..............................                                                                                                                    जिला कारागार
हरिगढ़
दिनांक-25 जून-15 अगस्त 2006

बुद्धि जीवी खो रहा है शब्द के संसार में

लुट रही माता की अस्मत
अब सरे-बाजार में
बुद्धि जीवी खो रहा है
शब्द के संसार में

श्रेष्ठता को सिद्ध कर दें
बस यही इक प्यास है
ढेर हो अभिनन्दनों का
मात्र इतनी आस है

टी.वी., अखबारों में हरदम
बस यही दिखते रहेें
चित्र इनके हर चतुष्पथ
पर सदा सजते रहें

क्योंकि इन पर अजब, अदभुत
शब्द का भण्डार है
देश से क्या, राष्ट्र से क्या,
बस स्वयं से प्यार है

छोड़ अपवादों को सब
बगुलों के जैसे भक्त हैं
मिसरी मिश्रित वाणियाँ हैं
पर हृदय के सख्त हैं

जल रही आतंक अग्नि,
हम झुलसते ताप से
है न कोई योजना,
कैसे बचेंगे पाप से


नृत्य हिंसा का समूचे
विश्व में ही छा रहा
ज्ञानी अपनी-अपनी ढपली,
राग अपने गा रहा

शब्द की आंधी में सत् का
भान भी कैसे रहे
सत्य क्या है, झूठ क्या,
यह ज्ञान भी कैसे रहे

शब्द है यह ब्रह्म,
यदि हो भाव इसके साथ में
और पीड़ा हरने वाले
हल छुपे हों बात में

शोषणों को देखकर हांे
बात में बेबाकियाँ
अन्यथा यह बुद्धि क्या है?
सिर्फ हैं चालाकियाँ

स्वयं का कत्र्तव्य यदि ना
बुद्धि को जँच पायेगा
तुम भले बच जाओ लेकिन
देश ना बच पायेगा

खेद है यदि दे गये हों
शब्द ये पीड़ा तुम्हें
बात मैं भी कह चुका अब
आप चाहें जो कहें....

Friday, January 18, 2013

भारत भू पर मरने वालो तुमको है यह गान समर्पित.

भारत भू पर मरने वालो
तुमको है यह गान समर्पित.
और मूल्य की वस्तु नहीं कुछ
जीवन का अभियान समर्पित.

भारत भू की रक्षा के हित
तुमने सबकुछ लुटा दिया था.
झेले कष्ट हटे ना पीछे
झुका न मस्तक कटा दिया था.

इक स्वतंत्र भारत का मन में
स्वप्न सजाकर चले गए तुम.
चेहरे पर मुस्कान हृदय में
आंसू भरकर चले गए तुम.

कितनी नववधुओं का कुमकुम
भेंट चढ़ा है आजादी को.
कितनी माताओं की गोदें
सिसकीं अपनी बरवादी को.

ना वे बिलखीं, ना वे रोईं
निज होठों को भींच लिया था.
उन तपस्विनी की आंखों ने
आंसू वापस खींच लिया था.

मन में था यह भाव सभी के
देश न अपना आरत होगा.
बलिदानों की नींव के ऊपर
सुन्दर, स्वप्निल भारत होगा.

किन्तु सुखद भारत का सपना
चूर हुआ तब गद्दारी से.
लाखों मारे गये बचा नहिं
देश मजहब की बीमारी से.

जिन को भारत की बसुधा ने
सदियों सीने पर झेला था.
अंत समय पर उन दुष्टों ने
खेल विभाजन का खेला था.

भारत भू पर मरने वालों
का हर सपना चूर हो रहा.
राष्ट्र-धर्म की मर्यादा से
भारत वासी दूर हो रहा.

जो पहले गोरे करते थे,
वह सब अब काले करते है.
जनशोषण पहले से बढ़कर
अब कुर्ते वाले करते हैं.

जंगल में गुण्डे रहते थे
सभी अनुभवी यह कहते हैं.
अब विकसित हो रहे देश में
गुण्डे बर्दी में रहते हैं.

झांसी की रानी का जीवन
चला गया गोली कटार में.
भीड़ युवतियों की मिलती अब
फिल्मदर्शकों की कतार में.

साठ बर्ष में दस सदियों के
कष्ट सभी अब भूल गये है.
उन्हें नहीं यह भान राष्ट्रहित
कितने फांसी झूल गये हैं.

भगतसिंह, शेखर, सुभाष का
मन में भाव नहीं रहता है.
आज युवा की वृत्ति देखिये
फिल्मों में जीता मरता है.

देवालय से बढ़कर ‘वीरो’
आज खुल रही हैं मधुशाला.
बच्चे बिना दूध के तरसें
बाप पिये मदिरा का प्याला.

जिस बेटी को लक्ष्मी कहते
जन्म पूर्व मरवा देते हैं.
और अधिक लक्ष्मी पाने को
जीवित ही जलवा देते हैं.

क्या ऐसे भारत की खातिर
ही खुद को बलिदान किया था.
क्या पीड़ा ना होती मन में
क्यों अपना सर दान दिया था.

बलिदानों की वृहत श्रँृखला
पर जो आजादी पाई है.
उसे संभालो अंतरतम से
खुद गुलामी की खाई है.

स्वतंत्रता से उच्छृंखल हो
जो तुम मन ही मन ऐंठोगे.
नहीं यहां कोई स्थिरता
इसे शीघ्र ही दे बैठोगे.

राष्ट्र-धर्म के सभी कार्य में
बढ़कर आगे आना होगा.
गिद्ध दृष्टि जो लगी देश पर
उससे देश बचाना होगा.

Wednesday, January 16, 2013

कुछ विदेशी शत्रु भारत के पतन को बढ़ रहे हैं।

हर तरफ घनघोर तम है, ना किरन है कोई रवि की।

रिक्त अंतस प्रीत से है तो क्या शोभा मनुज छवि की।


दानवी संस्कृति के आगे मानवी गुण खो रहे हैं।

आवरण पशुता का पहने लोग विकसित हो रहे हैं।


नग्नता की संस्कृति से मूढ़ता ही बढ़ रही हैै।

ज्ञान से अज्ञान के पथ पर ये गंगा बह रही है।


कुछ विदेशी शत्रु भारत के पतन को बढ़ रहे हैं।

और कुछ इस देश में ही साजिशांे को गढ़ रहे हैं।


और हम तो सो रहे हैं नींद के खाकर रसायन।

कल्पनाओं से घिरे हैं पढ़ रहे हैं वात्स्यायन।


राष्ट्र के प्रति प्रेम का सब भाव गिरता जा रहा है।

इसलिए ही शत्रु का साहस भी बढ़ता जा रहा है।


चीन लूटे, पाक लूटे किन्तु हम कुछ ना कहेंगे।

शान्ति के हम हैं समर्थक बस युंही सब कुछ सहेंगे।


गत हजारों बर्ष से हम हो गये लुटने के आदी।

या कहो कायर हमें तुम, या कहो तुम गांधिवादी।


बस परस्पर भिड़ते रहना ही हमारी प्रकृति है।

या इसे सद्गुण कहो तुम या कहो यह विकृति है।


प्रीत आपस में करें हम रीत यह अपनी नहीं है।

आवरण को त्याग कर यह जिन्दगी कटनी नहीं है।


और सारा विश्व मिलकर भी हमारा क्या करेगा?

राम का है देश यह क्या राम से कोई लड़ेगा?


जब कभी जंजाल में पड़ रामजी आ ना सकेंगे।

और तब क्या कृष्ण ऐसे जो हमारी ना सुनेंगे।


छोड़ दो यह नीतियां वरना तुम्हें रोना पड़ेगा।

बहिन, बेटी, धन औ दौलत सब तुम्हें खोना पड़ेगा।

राम भी तुम, कृष्ण भी तुम भाव यह मन में जगा लो।

द्रोहियों के हाथ से इस देश को अब तो बचालो।


है गुलामी रक्त में जो तुम उसे अब शुद्ध कर लो।

चेतना के शिखर छूकर स्वयं को तुम बुद्ध कर लो।


नेह की डोरी में बंधकर राष्ट्र का कुछ ध्यान कर लो।

मिट गये जो राष्ट्र हित में उनका कुछ सम्मान कर लो।


छोड़ दो शठ आचरण को, त्याग दो पर आवरण को।

जान अपना ‘‘धर्म’’ कर लो, शुद्ध तुम अन्तःकरण को।


कृष्ण की गीता है कहती, राम रामायण में कहते।

धर्म से जो च्युत हुये हैं वे नहीं इस जग में रहते।

जब से जन्मा तब से मैंने दुनिया के लाखों रंग देखे

मैं हूं कौन? कहां से आया?
मुझको कोई भान नहीं क्यों?
आया हूं किसलिए और क्यों?
मुझको कोई ज्ञान नहीं क्यों?

जब से जन्मा तब से मैंने
दुनिया के लाखों रंग देखे।
लाखों और करोड़ों वालों
के भी जीने के ढंग देखे।

शैशव से ही बन्दूकों के
सुने धमाके, दिल दहलाये।
सहमी सी आखों से देखे,
मैंने आतंकों के साये।

मैंने अपना होेश संभाला,
है गोली की आवाजों से।
रोज सुरक्षा होते देखी
है हिंसा की आगाजों से।

एक-एक से बढ़कर योद्धा,
साहस का कुछ तौल नहीं था।
स्वाभिमान के बड़े समर में,
सम्पत्ति का मोल नहीं था।

घटनाओं के वर्णन क्या दूं,
बहुत जिया हूं डेढ़ दशक में।
अपना तो सारा जीवन ही,
गुजरा पीड़ा और कसक में।

बड़े भले रूपों में मुझको
तरह-तरह के चोर मिले हैं।
कुछ तो अपनों में से निकले,
बाकी के कुछ और मिले हैं।

तरह-तरह से लुटते आये,
नये सवेरे की आशा में।
फिर भी नहीं जान पाये हम,
छल प्रपंच उनकी भाषा में।

कोई धन के कोई मन केे,
कई तरह के शोषक देखे।
भ्रष्टाचारी पापी देख,
दुव्र्यसनों के पोषक देखे।

श्वेत वस्त्र में छिपे हुये,
कुछ गुण्डे और मवाली देखे।
छेड़छाड़ और लूटपाट में,
‘वर्ग बिशेष’ बवाली देखे।

शोषित और पीड़ितों की जब
पीड़ा हृदय नहीं सह पाया।
जब-जब उनकी दुर्गति देखी,
तब-तब मैंने शस्त्र उठाया।

और उसी प्रतिकार मात्र से,
मुझको कानूनी बद्ध कर दिया।
राजनीति के अगुआओं ने,
मुझको गुण्डा सिद्ध कर दिया।

लेकिन समय-समय पर मैंने,
कुछ-कुछ लोग भले भी पाये।
जो दानवता के विरोध में,
साथ हमेशा मेरे आये।

लेकिन स्वार्थ और लालच में,
छोड़ गये कुछ मुझको ऐसे।
जैसे ज्यादा धन पाने को,
वैश्या ग्राहक बदले वैसे।

तुच्छ स्वार्थों को विचार पर,
मैंने हावी होते देखा।
कभी विचारों के साथी थे,
कभी ‘बीज बिष’ बोते देखा।

मैं विचार की भावुकता मैं,
भौतिकता से पिछड़ न जांऊ।
पर पीड़ा से जलने वाला,
निज कष्टों में जकड़ न जांऊ।

हे ईश्वर कुछ शान्ति मुझे दे,
मैं तेरे कुछ कार्य कर सकूं।
नहीं मुझे सम्पत्ति चाहिये,
लेकिन मैं निर्भार मर सकूं।

आत्मबोध के सभी प्रयासों,
को प्रभु अब ना और हिलाओ।
मैं हूं कौन? कहां है जाना?
मुझको मेरा मार्ग सुझाओ।


कहीं भटक ना जाऊं प्रभु मैं,
हर क्षण के झंझावातों से।
कहीं हृदय से टूट न जाऊं,
प्रतिपल लगते आघातों से।

मुझे माक्र्स के चिंतन से बढ़
सावरकर चिंतन भाता है।
नहीं अर्थ का मैं चिंतक हूं,
मुझे राष्ट्र चिंतन भाता है।

करो कृपा प्रभु मुझ पर ऐसी,
इस चिंतन की धार न टूटे।
भौतिकता के इस अभाव से,
राष्ट्र-धर्म से प्यार न टूटे..

विश्वमंच पर परख देखिये सर्वश्रेष्ठ भाषा हिन्दी है।

आज हिन्द, हिन्दी, हिन्दू का
मान जगत में नहीं रहा है।
इसीलिये भारत का भी
सम्मान जगत में नहीं रहा है।

छोड़ निजी भाषा संस्कृति को
हम ‘पर‘ द्वारे झांक रहे हैं।
त्याग सभ्यता भारत भू की
वैश्या के घर ताक रहे हैं।

और मूढ़ता के बश होकर
हम विकास का स्वप्न देखते।
छोड़ स्वयं के अतुल कोष को
कूढ़े में हैं रतन देखते।

हिन्दी नहीं शब्द का संग्रह
यह भारत मां की बिन्दी है।
विश्वमंच पर परख देखिये
सर्वश्रेष्ठ भाषा हिन्दी है।

धन्य ‘शूलजी’ समिति धन्य है
जो हिन्दी को रक्षित करती।
निज भाषा का मान बढ़ाकर
निज गौरव संरक्षित करती।

और सभी जन संकल्पित हों
नहीं रहेंगे अब भूलों पर।
पुष्पों की रक्षा का केवल
भार नहीं होता शूलों पर।

राजनीति व्यवसाय बन चुकी, केवल ग्राहक है यह जनता।

राजनीति के गलियारों में,
मैंने खूब स्वयं को झौंका।
अब मैं बिल्कुल जान गया हूं,
वहां मात्र धोखा ही धोखा।

जो जितना झूठा होता है,
वो उतना ऊंचा उठता है।
झूठ बोल कर वोट बटोरे,
हर पल जनता को ठगता है।

जो पहले अपराधी होता,
वो फिर नेता बन जाता है।
जनता का प्रतिनिधि बनने पर,
जनता पर ही तन जाता है।

अपहर्ताओं का संरक्षक बन,
निर्दोषों का खून पी रहा।
चोर लुटेरों को शह देकर,
जीवन कितना मस्त जी रहा।

इनकी मक्कारी को देखो,
रिश्वत लें लाइसैंस बनवायें।
ग्राम प्रधानों से मिलकर के,
राशन चीनी तक खा जायें।

ये अपने हित के कारण ही,
जातिवाद का जहर घोलते।
हैं तो नहीं किसी के भी ये,
लेकिन सबसे मधुर बोलते।


पांच बर्ष का दिवा स्वप्न
इनकी वुद्धि को खा जाता है।
इसीलिये हर पूंजीवाला,
निर्वाचन में आ जाता है।

ना कोई उद्देश्य, न निष्ठा,
केवल गाल बजाते रहना।
जनता में गुट बना-बनाकर,
अपनी चाल चलाते रहना।

इनके उथले दर्शन में तो,
राष्ट्र-धर्म ‘‘कुछ चीज नहीं है’
दानवता के पालनकर्ता,
मानवता का बीज नहीं है।

फिर क्यों इन्हें उठायें सर पर,
इनका यह स्थान नहीं है।
राष्ट्र-धर्म जिनको छोटा है,
वह निकृष्ट, महान नहीं है।

राजनीति व्यवसाय बन चुकी,
केवल ग्राहक है यह जनता।
सभी जानते व्यापारों में,
काम सदा बनिये का बनता।

इसीलिये भोली जनता से,
है करबद्ध निवेदन मेरा।
इनको कोई देव न समझो,
समझो इनका असली चेहरा।

वेद और गीता के बल पर, भारत उन्नत करना होगा

फूल अभय के खिलें जगत में,
भय का भूत भगाओ मिलकर।
मिटे व्याप्त अंधियारा मन से,
ऐसे दीप जलाओ मिलकर।

ज्ञान-ज्योति से जीवन के सब,
गहरे तम भी मिट जाते हैं।
है ‘अज्ञानजनित जो पीड़ा,
उसके बन्धन कट जाते हैं।

किन्तु अहम् के झूठे मद से,
ज्ञानी अज्ञानी होता है।
सबको बहुत दिखाये तनकर,
किन्तु अकेले में रोता है।

ज्ञान शब्द से नहीं प्रयोजन,
विद्यालय के मैकाले से।
ज्ञान वड़ी अद्भुत प्रतीति है,
जो मिलता अन्दर वाले से।

ज्ञान वही जिससे अन्तरतम,
का वीणा झंकृत होता है।
उसको कैसे ज्ञान कहें हम,
जिससे मन विकृत होता है।

‘पूर्व’ ज्ञान का विपुल कोष था,
आदिकाल से ग्रन्थ बताते।
जो असभ्य थे पश्चिम वाले,
वे अब हमको ज्ञान जताते।

इसका कारण मात्र यही है,
हम अपना सब छोड़ रहे हैं।
भूल निजी गरिमा गौरव को,
पागलपन में दौड़ रहे हैं।

कुछ धृतराष्ट्र सभी गांधारी,
सोच लिया है सब अन्धे हैं।
पश्चिम का मुंह ताक रहे हैं,
ज्ञानी यीशू के बन्दे हैं।

जिसने ज्योति विश्व को दी है,
आज तरसता है ज्योती को।
स्वावलम्ब, निज खोजें छोड़ीं,
कल को तरसेगा रोटी को।

वहुत हो चुका पागलपन यह,
अब तो शुद्ध करो सब मन को।
अपना ज्ञान बढ़ाता धन को,
पर का ज्ञान मिटाता जन को।

उनकी क्षमताओं के बल पर,
नहीं विश्व से डरना होगा।
वेद और गीता के बल पर,
भारत उन्नत करना होगा।

अपने दुर्गुण छिपा रहे हैं, बने हुए हैं खद्दरधारी।

साठ बर्ष के तुच्छकाल में,
कैसा बंटाधार हो गया।
अपना सबकुछ छोड़ रहे हैं,
अमरीका आधार हो गया।

इतने बर्षों में सीखा है,
हमने केवल बात बनाना।
जो हम पर विश्वास करें,
उन पर ही तलवार चलाना।

और निरन्तर सीख रहे हैं,
हम नितरोज नई मक्कारी।

अपने दुर्गुण छिपा अपनरहे हैं,
बने हुए हैं खद्दरधारी।

अन्दर दानव, बाहर मानव
ऐसा रोज यहां चलता है।
असत् सत्य पर भारी रहता
मानवाता का दिल जलता है।

अपराधों के पोषणकर्ता,
दुव्र्यसनों से लिपे हुए हैं।
जिनके दामन दाग भरे हैं,
स्वेत वस्त्र में छिपे हुए हैं।

अन्दर जो दारिद्र भरा है,
उसको धन से पाट रहे हैं।
बस उथली तृप्ति पाने को
निर्बल का हक चाट रहे हैं।


गुण्डे, पाखण्डी, दुष्टों ने
भगवा का भी सार खो दिया।
स्वार्थ और लालच के कारण
आध्यात्मिक आधार खो दिया।

बड़े उच्च मंचो से देखों,
हमको त्याग सिखाते भोगी।
हमने भी अपनी आंखों से,
मुहर बनाते देखे योगी।

और मूढ़ता भारत भू की,
श्रद्धा केवल आवरणों पर।
तन-मन-धन सब अर्पित करते
ध्यान नहीं कुछ आचरणों पर।

यदि हम स्वयं मुखोटेधारी,
तो हम क्या पहचान सकेंगे।
उच्च-तुच्छ क्या होता जग में,
कैसे उसको जान सकेंगे।

बिना ज्ञान की नकल वृत्ति ने
हमको क्या-क्या दिखलाया है।
सिर्फ बिदेशों की शैली पर,
नंगापन ही सिखलाया है।

युवक आज सब डिनो मारिया,
युवती बनने लगीं बिपासा।
छोटे-छोटे वस्त्र पहनतीं,
बचा नहीं संकोच जरा सा।

बने हुए हो अगर आधुनिक
ऐसा कुछ करतब दिखलाओ।
जैट विमानों की टक्कर पर,
उड़ने वाली कार बनाओ।

यदि भारत उन्नत करना है,
यह दोहरापन खोना होगा।
अन्दर-बाहर, बाहर-अन्दर
एक आदमी होना होगा।

इस चरित्र के दोहरेपन से
केवल भ्रम ही भ्रम बढ़ते हैं।
और दोगलों की वांणी से
निर्बल आशाऐं करते हैं।

रामलला की जन्म भूमि से,
सब मारीच हटाने होंगे।
सन्त और सज्जन को मिलकर
अपने हाथ बढ़ाने हांेगे।

यदि ऐसा कुछ कर दिखलाया,
भारत जग में छा जाएगा।
और जगत को दिशा दिखाने
बिश्वमंच पर आ जाएगा।

जो दिन रात परिश्रम करते, वो बेचारे नित्य रो रहे।

सत्य-धर्म पर चलने वाले,
तो भूखे बेजार पड़े हैं।
निर्लज्जों के घर-द्वारों पर,
कैसे बंदनवार लगे हैं।

जो खाते रिश्वत की रोटी,
उनके मोटे पेट हो रहे।
जो दिन रात परिश्रम करते,
वो बेचारे नित्य रो रहे।

जो समाज की बात न जानें,
ना जानें जो देश धर्म को।
जो जानंे बस धन का संग्रह,
ना जानें निज पाप-कर्म को।

वे ही देखो घूम रहे हैं,
पहनेे कुर्ता नई कार में।
सारा दिन अय्याशी करते,
रातें कटतीं बियर बार में।

जो शोषक हैं वे शासक हैं,
ऐसा मित्रो दौर चल रहा।
जो विचार से सृजन सोचता,
वो ही देखो हाथ मल रहा।

जो बोलें कुछ, करें और कुछ,
वे ही जग में मान पा रहे।
अपनी झूठी बातों से ही,
रोज नया सम्मान पा रहे।

क्या ये दानव मिट पायेंगे,
ऐसा कुछ संकेत नहीं है।
जग मिट जाये ये बच जायें,
इससे इनको खेद नहीं है।

लूट रहे सम्पत्ति देश की,
और निजी कोषों में भरते।
और धनाभावों से देखो,
कितने लोग खुदकुशी करते।

देख गरीबों का दुःख इनकी,
आंखें कभी नहीं नम होतीं।
कोई भी रोटी को तरसे,
इनकी लूटें कम नहीं होतीं।

इन सारी बातों से मेरा,
ईश्वर से विश्वास हिल रहा।
देख-देख सूनी आंखों को,
मेरा अब तो हृदय जल रहा।

फिर भी मेरी मांग यही है,
सबकोे रोटी वस्त्र चाहिये।
मर्यादा को बचा सकें सब,
ऐसे ईश्वर अस्त्र चाहिये।

पर ईश्वर तुम देते उनको,
बढ़ा रहे जो दानवता को।
अपने पापी हाथों से जो,
मिटा रहे हैं मानवता को।

कभी-कभी लगता है ऐसे,
तुम ही प्रलय चाहते जैसे।
यदि ईश्वर है बात यही तो,
तुम से कौन बचाये कैसे?

छोड़ रसों को मुनि भागे हैं, नृत्य मेनका का पाया है।

जीवन जब नीरस हो जाये,
क्या उसमें रस धार बहेगी।
जब कोई रस-मुक्त हो चले,
तब दुनिया रसहीन कहेगी।।

बहुत बचाया मैने निज को,
ऐसे सारे अवतरणों से।
नहीं बच सका हूँ फिर भी मैं,
इस रस के वातावरणों से।।

पहले डूबा फिर भागा हूँ,
अंतहीन रस की किरणों से।
अब आकर कुछ लगा कि जैसे,
हल न हुआ कुछ समिकरणों से।।

किन्तु कष्ट की बात नहीं कुछ,
जीवन में सब कुछ घटता है।
रस की चाह जिसे खींचेगी,
वो रस की खातिर मिटता है।।

नहीं झूठ यह अमिट सत्य है,
जो रस छोड़ गये हैं वन में।
मैं दावे से कह सकता हूँ,
तृप्ति नहीं उनको जीवन में।।

छोड़ रसों को मुनि भागे हैं,
नृत्य मेनका का पाया है।

आज खुद से पूंछता हूं, कौन हूं मैं? कौन हूं मैं?

आज खुद से पूंछता हूं, कौन हूं मैं? कौन हूं मैं?
पा सका उत्तरनहीं तो मौन हूँ मैं मौं हूँ मैं।
आ गिरा हूं आज जैसे, स्वप्न की अट्टालिका से।
इसलिए ही बह रहा है काव्य कोई तूलिका से।
आज मुझको स्वप्न के इन झंझटो से मुक्त कर दे।
चाहता है क्या प्रभू तू?आज कुछ तो व्यक्त कर दे।
अब हुई पर्याप्त पीड़ा, बिन विरामों के हे स्वामी।
भेजता है तू जिधर भी, उस तरफ होती है बामी।
भेजता पर पीर हरने, दे निरन्तर पीर मुझको।
मैं निकालूं जिनके कण्टक, वे चुभाऐं तीर मुझको।
ये व्यवस्था भी तेरी प्रभु, रास कुछ आती नहीं है।
खींचता है प्राण तू फिर, जान क्यों जाती नहीं है।
खेल भी तेरी तरह हर, कोई मुझसे हंस के खेले।
और पीड़ा इस हृदय की, ये कभी मुंह से न बोले।
राजपथ की राह पर, जाऊं बिना संसाधनों के।
तो मुझे अब मुक्त कर दे, मोह के तुछ बन्धनों से।
प्रेम की जब राह भेजे, दे घृणा के पुट बिषैले।
प्रेम पर वक्तव्य देते, आदमी कितने कषैले।
जब जिसे चाहे उठा दे, जब जिसे चाहे विठा दे।
तू मेरी इस जिन्दगी का, आज तो पर्दा उठा दे।
या मुझे कुछ कर व्यवस्थित, या मुझे जग से अलग कर।
या घृणा में भेज दे तू, हृदय को मुझसे बिलग कर।
काम क्या इस जग में मेरा, तू मुझे अब बोल दे सब।
कौन हूं मैं ?कौन हूं मैं? आज सब कुछ खोल दे अब।

संक्रमण के काल में भारत दिखाई दे रहा है

हर कदम पर अड़चनों का जाल बढ़ता जा रहा है।
जिन्दगी की दोपहर का सूर्य चढ़ता जा रहा है।

कल्पनाओें में भले ही मिल सके छाया घनेरी।
और कुछ इससे अधिक ना आस ही बाकी है मेरी।

टूटती है मोह-माया, छूटते जाते हैं बन्धन।
हाट में ऐसी खड़ा हूं मोल के लगते है तन-मन।

और करुणा के समन्दर की हिलोरें बढ़ रही हैं।
कुछ मिटाने, कुछ बनाने की कहानी गढ़ रही हैं।


और जैसे दूर मंजिल, कृश पथिक हो, पथ कठिन हो।
साथ ही विकलांग काया फिर भी चलना रात-दिन हो।

क्या कोई इस श्वांसक्रम में अपनी मंजिल पा सकेगा।
लक्ष्य जो दृढ़निश्चयी है क्या वहां तक जा सकेगा।

भोग का है बोलबाला, त्याग है मंची कहानी।
पहनेर नित नव मुखोटे, चल रहे चालेें सयानी।

मांस के टुकड़ों पै जैसे स्वान भूखे टूटते हैं।
लोग वैसे पद प्रतिष्ठा पा खजाना लूटते हैं।

और फिर धन से सबल हो, दूर करना चाहें डर को।
वैभवी दम पर कुचल देते हैं वे प्रतिभा के सर को।

संक्रमण के काल में भारत दिखाई दे रहा है।
चोट अपने दे रहे आरत दिखाई दे रहा है।

राम की आदर्श भू पर बढ़ रहे लंकेेश नितदिन।
हैं निशाचर संगठन में मान-धन लुटता है प्रतिदिन।

राष्ट्र-द्रोही शक्तियां फिर फन फुलाकर बढ़ रही हैं।
राष्ट्र के फिर-फिर विभाजन की कहानी गढ़ रही हैं।

जो कथित हैं राष्ट्रवादी वे लगे बाजीगरी में।
राष्ट्र-मर्यादा भुला दी वोट की सौदागरी में।

इसलिए ही हो व्यथ्ति मैं खोजता हूं सज्जनों को।
आवरण से मुक्त चेहरे, सत्यनिष्ठा, सद्जनों को।

हो न कोई मेरा अनुचर, सब विचारों के हों साथी।
उनको आकर्षित करें ना फूल, पंजा और हाथी।

ओर बन कर एक शक्ति वे जगाएं सुप्तजन को।
फिर से मिलकर सींच डालें सूखते जाते चमन को।

चल रही थी कुछ बरस से धार अब रुक सी रही है।
मात्र धन-दौलत के युग में क्षमता कुछ चुक सी रही है।

हैं जो रिश्ते नाते तन के वे निभाने ही पड़ेंगे।
हैं जा ऋण गत् जन्म के वे सब चुकाने ही पड़ेंगे।

अंततः यह याचना ना स्वर्ण मंडित नाम आए।
राष्ट्र के उत्थान पथ पर मेरी काया काम आए।

मानव का मानव से अब तो कोई प्यार नहीं दिखता

मानव का मानव से अब तो कोई प्यार नहीं दिखता है.
यह दुनिया बाजार हो गई, आज यहाँ सब कुछ बिकता है.
बात गई भाईचारे की.
बढ़ती है रट बँटवारे की.
दया प्रेम कुछ कर्म नहीं है.
मानवता अब धर्म नहीं है.
अंध हो रही तरूणाई है.
पशुता ने ली अंगड़ाई है.
धर्म गया ईमान खो गया.
अन्दर का इन्सान खो गया.
सबकी चाहें भरें उड़ानें जन्नत से सबका रिस्ता है।
यह दुनिया बाजार हो गई, आज यहाँ सब कुछ बिकता है.
जब से जितना नोट बढ़ा है.
मानवता में खोट बढ़ा है.
चोट बढ़ी अत्याचारों की.
बात बढ़ी भ्रष्टाचारों की.
शब्दों का व्यापार बढ़ा है.
पापों का संसार बढ़ा है.
निज-हित में मक्कार बढ़े हैं.
घर-घर में गद्दार बढ़े हैं.
नोटों की गड्डी के आगे ऋत को नर अनृत लिखता है।
यह दुनिया बाजार हो गई, आज यहाँ सब कुछ बिकता है.
रिश्ते नाते विक जाते हैं.
नेता-मन्त्री चुक जाते हैं.
बिकता अपना संविधान है.
पैसे से बनता बिधान है.
यही हाल तो देश बिकेगा.
धर्म यहाँ किस भाँति टिकेगा.
इक दिन शैतानी छल होगा.
प्रश्न भला कैसे हल होगा.
राम कह गये कृष्ण कह गये ‘सत्य’ सदा बल र्से िटकता है.
यह दुनिया बाजार हो गई, आज यहाँ सब कुछ विकता है.

जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.

जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.
अब फिर से उठ रहीं हंै बगावत की आँधियाँ.
अब फिर से खून सस्ता है मंहगी हैं पोथियाँ.
लाशों को देख कर भी हृदय हेोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हैं शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
तस्वीर अपनी अब तो दर्पण में देखिए.
सीमाऐं अपनी पीछे के चित्रण में देखिए.
घातें न होतीं प्रेम रस जो घोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हंै शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
इनकी तो पहले क्या नहीं देखीं हैं बाजियाँ.
फूलों की टोकरी पै भी, फेकीं है वर्छियाँ.
अपराध फिर भी इनका कोई तौलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.
बक्तव्य राजनीति का दादुर की चीख है.
कायर पडे़ समाज को, बातों की भीख है.
संयम भी है कि आज तलक डोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
हंै शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
वर्षों से चले आ रहे निन्दा के दौर हैं.
एड़ी से मसल देते हैं वे ‘कोई और’ हैं.
आतंक सदा ही तो खुला डोलता नहीं.
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलत नहीं.
कहता हूँ पद्य में जो, तो कहते हो कवि है.
कहता हूँ गद्य, कहते हो नेता यह भी हैं.
मन किन्तु इशारों की तहें खोलता नहीं
जल रहा है देश कोई बोलता नहीं.
है शर्मशार किन्तु रक्त खौलता नहीं.

Saturday, January 12, 2013

लग रहा है ‘‘हर सुनहरी चीज’’ सोना हो गई.


आदमी की तृप्ति-‘‘नोटों का बिछोंना हो गई है.
लग रहा है ‘‘हर सुनहरी चीज’’ सोना हो गई.
हो गया विक्षिप्त मानव
अब स्वयं से दूर रहकर.
रह गया है मात्र मलवा-
बच गया जो महल ढहकर.
भौतिकी परिवेश में अब
खो गई हंै भावनाऐं.
स्वार्थ अग्नि में झुलस कर
रह गईं संवेदनाऐं.
सतपथी की जिंदगी तो मात्र रोना हो गई.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
‘प्रेम’ जैसे शब्दतल पर
वासनाओं के समन्दर.
पाशविकता आचरण में
कल्पनाओं में है मन्दर.
आधुनिक फिल्मी तरज पर
चल रही सारी कहानी.
अरुव्यसन की पूर्ति में ही
देश की गलती जवानी.
भीड़ ऐसी माँ मही को भार ढोना हो गई है.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
हर नगर और गाँव में
प्रति वर्ष हरि लीला का मंचन.
देखने में धर्म पर है
वास्तविक जनता का वंचन.
आध्यात्म चर्चा आड़ में
है कर रहे मोटी कमाई.
गर करें तुलना तो इनसे
लाख अच्छे हैं कसाई.
खेलते जी भर सभी जनता खिलौना हो गई है.
लग रहा है ‘हर सुनहरी चीज’ सोना हो गई.
देेश आहत भूख से है,
और फिर आतंक छाया.
लाल-नीली बत्तियाँ ले
लूटते जी भर के माया.
आड़ में श्वेताम्बरों की
हो रहे कितने घुटाले.
चाहे फिर स्विस बैंक के
खुल ना सकें मजबूत ताले.
उच्च दर्शन देश का पर सोच बौना हो गई है.
लग रहा है हर सुनहरी चीज सोना हो गई है.

तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये
यूं अकेले-अकेले न कट पायेगी
प्रेम से मिल गिले सब भुला दीजिये

जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

जूझते-टूटते कितनी सदियां गयीं
बोध का पुष्प फिर भी न मन में खिला
श्वेत डाला चले राजपथ की डगर
मन तो काला रहा रह गया अनधुला

बोध का पुष्प मन में खिला लीजिये
जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

राष्ट्र के प्रेम की ध्वस्त हर आस है
अब सृजन की सुखद भावना छल रही
क्षेत्र के, जाति के, वाद कितने खड़े
शीर्ष के स्वार्थ की कामना पल रही

छोड़ हर वाद दिल को मिला लीजिये
जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

प्रश्न हैं सैकड़ों किन्तु उत्तर नहीं
यह उफनती लहर सब डुबो जायेगी
नाविकों से कहो नाव को खींच लें
डूबती नाव हर चिन्ह खो जायेगी

अब तो पतवार दिल से चला दीजिये।
जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं।
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

दुष्टता से बढ़ी भ्रष्टता देखकर
क्या हृदय को कोई कष्ट होता नहीं
भूख से देश व्याकुल खड़ा चीखता
देख कर दिल तुम्हारा क्या रोता नहीं

नींव तक दुष्टता की हिला दीजिये
जाग जाओ, उठो, देश के बन्धुओं
तम बहुत है दिया एक जला दीजिये

जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी।
दर्द की गोद में ही पली जिंदगी।

रुठ जाना मनाना अलग बात है
डूबना पार जाना अलग बात है
जेठ की चिलचिलाती हुई धूप में
छांव पाना न पाना अलग बात है

बर्फ सी ठोस लेकिन गली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

कामनाओं के घनघोर सागर मिले
प्रीति के अधभरे सिर्फ गागर मिले
व्यर्थ की बढ़ रही इस बड़ी भीड़ में
बेवजह दौड़ते से मुसाफिर मिले

देखते-देखते ही ढली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

नाम की उसके माला ही फेरे रहे
ना पता हमको क्यों फिर भी घेरे रहे
देखते ही हमें छुप गई चांदनी
जिंदगी में टिकाऊ अंधेरे रहे

यूं अंधेरों में अकसर चली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

आँँख की कोर तक पीर आती रही
घूंट भर आँँख इसको छिपाती रही
और अन्दर से कोई मसलता रहा
मौन रह आत्मा तिलमिलाती रही

यूं तड़प में निरन्तर पली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

एक दिन देह का देवता भी गया
कर सका कुछ नहीं देखता रह गया
सब सधी भावनाऐं तड़पती रहीं
मैं अकेला यूं ही बेखता रह गया

क्या भरोसा चली न चली जिंदगी
जिंदगी ने सदा ही छली जिंदगी

मोम सा खुद को जलाना ही परम इक साधना ह


मोम सा खुद को जलाना ही परम इक साधना है.,
दिव्यता की ओर बढ़ना ईश की आराधना है.
त्यागना दष्ुवृत्तियों को.
सत्य का सन्मार्ग चुनना.
गिर पड़ें ना हम अधर में,
हो सजग हरि नाम गुनना.
उन परम अनुभूतिओं को शब्द में क्या बांधना है.
मोम सा खुद को जलाना, ही परम इक साधना है.
हो भला उनका भले जो,
दुष्टता का नाश होवे,
धर्म की ज्योति जले अरु,
पाप का जड़मूल खोवे.
तन से मन से और धन से यदि हृदय की भावना है
मोम सा खुद को जलाना, ही परम इक साधना है..
राम का और कृष्ण का
आदर्श था इक ही सदा से
दुष्टता से मुक्त धरती,
मुक्त धरती आपदा से.
धर्म को आधार देना, धार्मिक की कामना है
मोम सा खुद को जलाना, ही परम इक साधना है.
जो दिया उसने दिया है
है समय पर सब समर्पित.
जब हमारा है नहीं कुछ
है उसी का उसको अर्पित.
चाहते पाना असीमित, तुच्छता को लांधना है.
मोम सा खुद को जलाना, ही परम इक साधना है..

मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला

मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.
तन के सम्बन्ध कैसे निभाऊँ भला?

प्रेम भी इक उलझता हुआ जाल है
मोह उससे बड़ा एक जंजाल है
वेदना के सिबा और कुछ ना मिला
हंस पड़ा तालियां पीट कर काल है

मन को ऐसा लगा जैसे जाता छला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

झूठ फैला तो सच ने गमन कर लिया
झूठ ने वश में धरती गगन कर लिया
छटपटाता रहा सत्य, रोया नहीं
अश्रु का आँख ने आचमन कर लिया

है भटकता लिए दर्द दिल में पला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

सुख भी क्या है भला; देह का भान है
धन भी दुनिया में बचने का अनुमान है
दुख परम् दिव्य है आरती की तरह
जिससे पाता मनुज वेद सा ज्ञान है

कौन है चोट खाकर नहीं जो ढला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

सुप्त है, शांत है, मौन अनुराग है
कर्म-कर्तव्य है किन्तु बैराग है
अर्थ सब व्यर्थ हैं इस जगत के अरे
सत्य अन्तर में जलती हुई आग है

अब क्या भटकेगी यह बुद्धि हो चंचला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

मौन भी जब स्वयं नाद होने लगे
बिन हिले होठ संवाद होने लगे
मध्य मेंं ज्योति की चमचमाती किरन
पंछी पिंजरे से आजाद होने लगे

मोल का कुछ नहीं दीप क्षण जो जला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.